________________ नैषधीयचरिते दमयन्ती रह रही है। इससे नारद का यह अमिप्राय निकलता है कि मीम की कुण्डिनपुरी और तुम्हारी स्वर्गपुरी चाहने में आकाश-पाताल का अन्तर पड़ जाता है। भू में होने से कुण्डनपुरी समीप ही है,जहाँ सशरीर लाने में राजाओं को कोई अड़चन नहीं आती,लेकिन एक तुम्हारी स्वर्गपुरी है, जो भू से अरबों-खरबों मील दूर पड़ती है और जहाँ आने के लिए शरीर छोड़ना पड़ता है, युद्ध में मरना पड़ता है। कौन मूर्ख राजा तुम्हारे यहाँ आना चाहेगा?' विद्याधर ने यहाँ भी अतिशयोक्ति कही है, किन्तु हमारे विचार से यहाँ काव्यलिङ्ग है क्योंकि पूर्वार्ध में स्वर्ग न आने का कारण उत्तरार्ध में यह बताया गया है कि स्वर्ग चाहने और दमयन्ती चाहने में राजे आकाश-पाताल का अन्तर देख रहे हैं / शब्दालंकार 'मती' 'मिता' में छेक है और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तेन जाम् दधतिर्दिवमार्गा संख्यसौख्यमनुसतुमनु त्वाम् / ____ यन्मृधं क्षितिभृतां न विलोके तमिमग्नमनसां भुवि लोके // 35 // अन्वयः-(हे इन्द्र ! ) भुवि लोके तन्निमग्न-मनसाम् क्षितिभृताम् मृधम् यत् न विलोके, तेन जाग्रदधृतिः ( अहम् ) संख्य-सौख्यम् अनुसतुम् त्वाम् अनु दिवम् आगाम् / / टीका-(हे इन्द्र ! ) भुवि लोके भूलोके तस्यां दमयन्त्याम् निमग्नम् आसक्कमित्यर्थः ( स० तत्पु०) मनः हृदयम् ( कर्मधा० ) येषां तथाभूतानाम् (ब० वी० ) मिति पृथिवीं विनति धारयन्तीति तथोक्तानाम् ( उपद तत्पु० ) मृधम् युद्धम् ( 'मृधमास्कन्दनं संख्यम्' इत्यमरः) यत् यस्मात् न विलोके पश्यामि, तेन हेतुना जाप्रती उद्भवन्ती अतिः अधैर्यम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अहम् संख्यस्य युद्धस्य सौख्यं मुखम् अनुसतुंम् अनुगन्तुम् अनुभवितुमित्यर्थः स्वाम् अनु लक्ष्योकृत्य दिवम् स्वर्गम् श्रागाम् आगच्छम् , भुवि राजानो न युद्धयन्ते, संमवतः स्वर्ग युद्ध भवेदिति कृत्वा युद्धसुखमनुभवितुमहं स्वर्ग आगत इति मावः // 35 // व्याकरण-क्षितिभृताम् /भृ+विप ( कर्तरि ) / जाग्रत / बागृ+शत् / तिः + जिन् ( मावे ) / सौख्यम् सुखम् एवेति सुख+ष्य ( स्वार्थ ) / अनुवाद-(हे इन्द्र, ) क्योंकि भूलोक में उस ( दमयन्ती ) पर ( अपना ) मन लगाये हुए राजे लोगों की लड़ाई मैं नहीं देख रहा हूँ, इस कारण अधीर बना हुआ युद्ध का आनन्द लेने हेतु तुम्हें लक्ष्य करके स्वर्ग में आया हूँ / / 35 / / टिप्पणी-स्वर्ग पाने का कारण बताने से यहाँ मी काव्यलिङ्ग है। 'विलोके' 'विलोके' में यमक, चारों पादों में तुक मिलने से पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वेद यद्यपि न कोऽपि भवन्तं हन्त हन्त्रकरुणं विरुणद्धि / पृच्छयसे तदपि येन विवेकप्रोन्छनाय विषये रससेकः // 36 // अन्धयः-कः अपि हन्त्रकरुपम् मवन्तम् न विरुषद्धि ( इति ) हन्त ! यद्यपि ( अहम् ) वेद, तदपि पृच्छयसे येन विषये रससेकः विवेक-पोछनाय ( मवति ) / टीका कामपि कश्चिदपि हन्तृषु वातकेषु शत्रुवित्यर्थः प्रकरणम् निर्दयम् कठोरमिति यावत् ( स० तत्पु० ) भवन्तम् त्वाम् न विरुणदिन विगृह्णाति त्वया विरुध्यमानो न युद्ध करोतीति