Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 312
________________ 212 नैषधीयचरिते परमाणु के मीतर नहीं घुस सकती है। यहाँ लज्जा पर दरीत्व और युवा पर सिंहस्व का भारोप होने से रूपक है / विद्याधर ने दो भतिशयोक्तियों मी मानी हैं। मनरूप परमाणु में न दरीका और नही 'हरि' का सम्बन्ध हो सकता है, क्योंकि परमाणु निरवयव तत्व हुआ करता है, जिसके भीतरी और बाहरी अवयव कोई नहीं होते हैं / इसलिए वही 'दरो' और 'हरि' का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताने से यहाँ असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्तियाँ भी है, जिनका रूपक के साथ संकर बना हुआ है / 'दरी' 'हरि' में में तुक मिलने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृक्षयनुप्रास है। सा शरस्य कुसुमस्य शरव्यं सूचिता विरहवाचिभिरङ्गः / तातचित्तमपि धातुरधत्त स्वस्वयंवरमहाय सहायम् // 30 // अन्धय-सा विरह-वाचिभिः अङ्गः कुसुमस्य शरस्य शरव्यम् सूचिता ( सती ) स्व-स्वयंवर-महाय तात-चित्तम् अपि धातुः सहायम् अधत्त / टीका-सा दमयन्ती विरहं वियोगं वियोग-चिह्न वैवर्ण्य कृशतादिकमित्यर्थः ब्रुवन्ति व्यञ्जयन्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु०) अङ्गः अवयवैः कुसमस्य पुष्परूपस्य शरस्य वापस्य मदनबाणस्येत्यर्थः शरस्यम् लक्ष्यम् ( 'लक्ष लक्ष्यं शरव्यं च' इत्यमरः) सूचिता शापिता अर्थात् शरीरकायर्यादिना सा कस्मिन्नपि युवके रज्यतीत्येतावन्मात्रमेवानुमीयते इति मावः स्वस्थाः आत्मनः स्वयंवरः स्वयंपतिवरपरूपो विवाहः एव महः उत्सवः ( कर्मधा० ) तस्मै तातस्य पितुः चित्तम् मनः अपि (10 तत्पु०) धातुः ब्रह्मपः सहायम् सहायकम् सहकारीति यावत् अधच चकार / धात्रा तस्या मनसि स्वयंवरस्य भावो जनितः, पिता अपि तस्यां विरह-चिह्नानि विलोक्य स्वयंवरस्य विचारं च कृत्वा धातुः सहायताम् अकरोत् इति भावः // 30 // ग्याकरण-बाचिभिः + पिन् ( कर्तरि ) को बचादेश। शरव्यम्-शरवे =शरशिक्षाये हितम् , अथवा शृणातीति शरुः हिंसकः तस्मै हितम् इति शर+थत् / सहायम् सह एति ( गच्छति ) इति सह+/ +अच् कर्तरि / अनुवाद-वह ( दमयन्ती) विरह वोधक अंगों द्वारा ( पिता के आगे ) कामदेव के बाण का लक्ष्य बनो सूचित की हुई ( अपने ) स्वयंबर उत्सव हेतु पिता के मन को मो विधाता का सहायक बना बैठी।। 30 // टिप्पणी-विधाता के नियमानुसार कोई मी कुमारी युवावस्था में पदार्पण करते ही अपना संगी चाहने लग जाती है। विधाता ने दमयन्ती में मी एतदर्थ स्वमावतः प्रेरणा भरी। पिता मी उसकी हालत देखकर समझ गया और स्वयंवर हेतु विधाता का सहयोगी बन गया। विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति और सहोक्ति मानी है सम्भवतः इस विचार से कि विधाता और पिता दोनों का युगपत् स्वयंवर का विचार बन गया / वास्तव में ब्रह्मा का विचार पहले बना फल स्वरूप पिता का बाद को। इस तरह कार्य-कारणों के पौर्वापर्य-नियम का विपर्यय होने से कार्य-कारण पौर्वापर्य-विपर्यय-रूपा अतिशयोक्ति बन रही है। 'सहायम्' में सहाथ निहित होने से सहोक्ति उसके साथ हो गई है। शब्दालंकारों में 'शर' 'शर' में यमक, 'धातु' 'धत्त' में छेक, 'महाय' 'सहाय' में पदान्तगत अन्त्यानु. प्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है।

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