Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 310
________________ नैषधीयचारते टोका-सम्प्रति इदानीम् सा दमयन्ती यौवनस्य तारुण्यस्य जवेन वेगेन (10 तत्पु० ) मुहूतें मुहूते इति प्रतिमुहूर्तम् प्रतिक्षणम् ( अव्ययी० ) का अपि अपूर्वा न पूर्वा ( नञ् तत्पु० ) अनन्या, अनिर्वचनीयलावण्यवतोति यावत् भवन्ती जायमाना शिखाम् चूडाम् मर्यादोकृत्येति माशिस्त्रम् ( अव्यय० ) आनखशिखमित्यर्थः पाहात् आरभ्य शिरःपर्यन्तमिति यावत् सुकृतानाम् पुण्यानाम् सारः स्थिरांशः उत्कर्ष इत्यर्थः ( प० तत्पु० ) तेन भृते पूर्णे ( तृ० पु० ) व कस्मिन् अपि कोकोत्तरे यूनि युवके भावम् अनुरागम् मजते धत्ते किलेति प्रयते ('वार्ता-सम्माष्ययोः किन इत्यमरः ) कस्मिंश्चित् अत्यन्तभाग्यशालिनि नवयुवके सा रज्यतीति भावः // 27 // . व्याकरण-मुहुतम्-यास्कानुसार 'मूढ इव ऋतुः ( काल: ) इति' पृषोदरादित्वात् साधुः। यौवनम् यूनो माय इति युवन् +अण् / मवन्ती- भू+शत+कोप् / युवा इसके लिए पीछे श्लोक 25 देखिए / भावम् भवति उत्पद्यते मनसोति /भू+घञ् ( कर्तरि ) / अनुवाद-इस समय वह ( दमयन्ती ) यौवन की अंगहाई से पल-पल में कुछ अपूर्व अनोखी ( हो ) बनती जा रही ( पैर से लेकर ) चोटी तक ढेरों पुण्यों से भरपूर किप्ती युवा से प्रेम कर रही है-ऐसी खबर है // 27 // टिप्पणी-हम पीछे श्लोक 1 में संकेत कर आए हैं कि नारद का काम झगड़ा कराना और झगड़ा देखकर मौज लूटना होता है। अपूर्व सुन्दरी के रूप में दमयन्ती का चित्रण करके उसका किसी अपूर्व युवा से प्रेम बताकर वह इन्द्र को भड़का रहा है कि वह भी उसके लिए क्यों न प्रयत्न करे। इससे यहाँ संघर्ष होना स्वामाविक है, जो नारद को सदा प्रिय है। यहाँ दमयन्ती के सुन्दरियों और युवा के अन्य सुन्दरों से अमिन्न होते हुए भी अपूर्व-अन्य-अर्थात् मिन्न बताने में अमेदे मेदातिशयोक्ति है / 'वन' 'बेन' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। कथ्यते न कतमः स इति त्वं मा विवक्षुरसि किं चलदोष्ठः ? / अर्धवर्मनि रुणसि न पृच्छां निर्गमेण न परिश्रमयैनाम् // 28 // अन्वय-हे इन्द्र, चलदोष्ठः त्वम् ‘स कतमः ?' इति (कथम् ) न कथ्यते ?' इति माम् विवक्षुः असि किम् ? ( तहिं ) अर्ध-वर्मनि पृच्छाम् न रुपरिस ? एनाम् निर्गमेण न परिश्रमय / टीका-(हे इन्द्र, ) चलन्तौ वक्तुं स्फुरन्तो भोष्ठौ दन्तच्छदौ ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) स्वम् ‘स युवा यस्मिन् दमयन्ती रज्यति कतमः कतिषु एकः किनामेत्यर्थः' इति न कथ्यते प्रोच्यते 'इति माम् नारदम् वक्तुमिच्छुः विवक्षुः असि किम् प्रश्ने ? (तहिं ) भधम् वर्म मुख-मार्गः तस्मिन् ( कर्मधा० ) अथवा अर्ध वर्त्मनः इत्यर्धवर्त्म तस्मिन् (10 तत्पु० ) पृच्छाम् प्रश्नम् न रुणसि वारयसि ? एनाम् पृच्छाम् निर्गमेण मुखाद् बहिरागमनेन उच्चारणेनेत्यर्थः न परिश्रमय क्लेशय, मयापि अशातत्वात् तस्य यूनो नामप्रच्छनस्य कष्टं माकुर्विति मावः // 28 // व्याकरण-कतमः कतिषु एक इति किम् +तमप् / विवक्षुः/वच+सन्, दिव+उ: ( कर्तरि ) / पृषछा- पच्छ् +अङ् ( मावे ) संप्रसारण,+टाप् / निर्गमेण निर् + गम् + पा ( मावे ) निर् उपसर्ग लगने से न को प / परिश्रमय परि+/श्रम् +णि+लोट् /

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