________________ पञ्चमसर्गः इत्यमरः) सहसा झटिति विमृज्य अपनीय श्रुतौ कर्षे सारः परमोस्कृष्टः पीयूषरूपैरित्यर्थः भगवता आर्यस्य वाग्मिः वचनैः श्रुती वेदे सारैः श्रेष्ठः अधस्य दुःखस्य अथ च पापस्य मर्षणस्य मार्जनस्य तरसम्बन्धिनीमिरित्यर्थः ऋग्मिः मन्त्रः ( उभयत्र 50 तत्पु० ) भूयताम् / भवन्मधुरवचनानि तथैव ममाघम् ( दुःखम् ) निवारयन्तु यथा वेदाघमर्ष गमन्त्रा लोकानाम् अघम् (पापम् ) निवारयन्तीति मावः // 18 // ग्याकरण- शिल्पि शिल्पम् ( रचना ) अस्यास्तीति शिल्प+इन् ( मतुवर्थ ) / स्फीतम् Vस्फाय+क्त (कर्तरि) स्फी आदेश / श्रुतिः भूयतेऽनयेति V+क्तिन् (करणे) अथ च भूयते इति (कर्मणि)। वाग्भिः उच्यते इति Vवच+क्विप् ( मावे ) दीर्घ और सम्प्रसारणामाव / मर्षणः मर्षयतीति /मृष् + ( नन्द्यादित्वात् ) ल्युः ( कर्तरि ) / मर्षण-ऋग्मिः प्रकृतिमाव। VS+लोट (भाववाच्य ) भूयताम् / अनुवाद-(हे मुनि ! ) ( अतिथि मेरे यहाँ क्यों नहीं आ रहे हैं ? ) इस विषय में संशय-जनक मेरे बड़े मारी अघ ( दुःख ) को शीघ्र मिटाकर श्रुति-सार ( कानों को उत्तम लगने वाली ) आपकी वाषी अतिसार ( वेदों में श्रेष्ठ ) अघ (पाप) का मर्षण (निवारण) करने वाले मन्त्रों का काम करे / / 18 / / टिप्पणी-यहाँ विद्याधर ने अतिशयोक्ति और श्लेष अलंकार माने हैं, क्योंकि दो विभिन्न अधों और अतिसारों में अमेदाध्यवसाय हो रखा है, लेकिन हमारे विचार से-जैसा कि मल्लिनाथ ने भी माना है-यहाँ श्लिष्ट परिणामालंकार है, क्योकि नारद के वचनों पर अघमर्षए-मन्त्रों का तादात्म्य स्थापित करके उसको प्रकृतोपयोगी अर्थात् अघनिवारण में काम आने वाला बताया गया है / 'चन्द्रालोक' के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है-'परिणामः क्रियार्थश्चेद् विषयी विषयात्मना / शम्दाइंकार वृत्त्यनुपास है। अघमर्षण-ऋग्मिः -ऋक् ऋग्वेद की ऋचा अथवा मंत्र को कहते हैं। इस वेद की कुछ ऋचायें ऐसी हैं, जो 'अघमर्षण' ऋचाय कहलाती हैं। इनके बोलने से अघ ( पाप ) का नाश होता है। ब्राह्मण बालक सन्ध्या करते हुए नित्य इन ऋचाओं को बोलते हैं जैसे-'ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चामीदात्तपसोध्यजायत ततो रायजायत ततः समुद्रो अर्णवः, समुद्रादर्णवादधि सम्बत्सरो मजायत, अहोरात्राणि विदधविश्वस्य मिषतो वशी, सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम. कल्पयत् दिवञ्च पृथिवीं चान्तरिक्षमथोस्वः // इसी तरह 'ॐ आपोहिष्ठा मयोभुवस्तान बजे दवातन' इत्यादि। इत्युदीर्य मघवा विनयर्धि वर्धयन्नवहितत्वभरेण / चक्षुषां दशशतीमनिमेषां तस्थिवान्मुनिमुखे प्रणिधाय // 19 // अन्वयः-मघवा इति उदीर्य अवहिततस्व-भरेण विनयविंम् वर्धयन् अनिमेषाम् चक्षुषाम् दश. चवीम् मुनि मुखे प्रणिधाय तस्थिवान् /