________________ पञ्चमसर्गः ( कर्तरि ) / स्मितम् /स्मि+/क्त ( मावे ) / माख्यत् आ+/चलिड +g, चक्षित को ख्या प्रादेश। अनुवाद-नारद, इन्द्र के पद पर स्थित होते हुए मी उत्त (इन्द्र) की बड़ी मारी विनम्रता देखकर आश्चर्य चकित हुए, अतिहर्ष से गद्गद बनी बापो से मुस्कराहट के साथ बोले / / 20 // टिप्पणी-अमिमान के कारण-भूत इन्द्रत्व रूप ऐश्वर्य के होते-होते मी अमिमान रूप कार्य का न होना, नम्र बना रहना-इसे हम विशेषोक्ति कहेंगे। 'पाक' 'पाक' और 'स्मित' 'स्मित' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मिक्षिता शतमखी सुकृतं यत्तत्परिश्रमविदः स्वविभूतौ / तत्फले तव परं यदि हेला क्लेशलब्धमधिकादरदं तु // 21 // अन्वय-(हे इन्द्र ! त्वया ) शत-मखी (दात्री) यत् सुकृतम् मिक्षिता, तत्-फले स्व-विभूतौ यदि हेला ( अस्ति, तहिं ) तत्परिश्रमविदः परम् एव ( अस्ति ) / क्लेशलब्धम् ( वस्तु ) तु अधिकादरदम् ( मवति ) / टीका-(हे इन्द्र, स्वया ) शतस्य मखानां यशानाम् समाहार इति शतमखी ( समाहार द्विगु ) यत् सुकृतम् पुण्यम् मिक्षिता-याचिता, शतमखी-सकाशात् त्वया पुण्यं याचितमित्यर्थः तस्य सुकृतस्य फले (10 तत्पु० ) तत्फलात्मिकायामित्यर्थः स्वस्य आत्मनः विभूतो ऐश्वयें यदि चेत् हेला अवहेलना अवशेति यावत् ('हेलावशाविलासयोः' इति विश्वः) अस्ति, तहि तस्य पातमखीसकाशात् सुकृत-याचनस्य शतयशानुष्ठानस्येत्यर्थः श्रमं परिश्रमम्, क्लेशं ( 10 तत्पु०) वेत्ति जानातीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु.) परम् केवलम् ( 'परं स्यादुत्तमानाप्त वैरि-दूरेषु केवलम्' इति विश्वः ) तव एवास्तीति शेषः / शतयशानुष्ठानक्लेशाजित-पुण्यफलस्वरूप प्राप्ते ऐश्वयें अमेण लब्धम् प्राप्त वस्तु तु अधिकम् बहु प्रादरं संमानं महत्त्वमिति यावत् ( कर्मधा०) ददाति मात्मने प्रयच्छति करोतीति यावत् तथोक्तम् (उपपद तत्पु०) भवतीति शेषः विना क्लेशेन प्राप्ते वस्तुनि यदि लोकोऽवशाम् उपेक्षाच धत्ते, धत्ता नाम किन्तु बहु क्लिशित्वा प्राप्ते वस्तुनि सर्वेषाम् दरो भवति, तस्मै ते महत्त्वं ददतीति मावः / / 21 / / / व्याकरण-शतमखी अकारान्तोत्तरपद होने से समाहार-द्विगु स्त्रीलिंग बन जाता है। मिश् धातु द्विकर्मक होने से गौण कर्म शतमखी से 'गौणे कर्मणि दुयादेः' नियम के अनुसार कर्मणि प्रत्यय है। परिश्रमविदः- विद्+विप् ( कर्तरि ) / आदरदम् /दा+क: यहाँ दा को अन्तर्मावित प्पि समझिए अर्थात् दापयति दिलवाती है, अपना आदर करवाती है। / अनुवाद-(हे इन्द्र, ) सौ यशों से जो पुण्य तुमने मांगा, उसके फल-स्वरूप ( प्राप्त हुए ) रिश्वर्य के प्रति यदि अवहेलना ( किसी की है, तो ) उसके श्रम से अमिश केवल मात्र तुम्हारी ही है। ( ऐसा कोई और नहीं करता ) क्लेश से प्राप्त हुई वस्तु तो ( अपने को ) अधिक आदर दिलवाती है // 21 //