Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 307
________________ पञ्चमसगः 307 श्रीभरानतिथिसास्करवाणि स्वोपभोगपरता न हितेति / पश्यतो बहिरिवान्तरपीयं दृष्टिस्मृष्ठिरधिका तव कापि // 23 // "श्रीमरान् अतिथिप्तात्करवाणि, खोपभोगपरता न हिता" इति अन्तः अपि बहिः इव पश्यता तव इयम् अधिका का अपि दृष्टि-सृष्टिः ( अस्ति ) / ____टीका-श्रियाम् सम्पदाम् भरान् अतिशयान् , (10 तत्पु० ) देयत्वेन अतिथीनाम् अधीनान् करवाणि कुर्याम् इत्यतिथिसात्करवाणि स्वस्थ आत्मनः एव उपभोगः आस्वादनम् ( ष. तरपु० ) परं प्रधानम् ( कर्मधा० ) यस्य तस्य (ब० वी०) भावः तत्ता। आत्मम्भरितेत्यर्थः न 'हिता श्रेयस्करी' इति अन्तः अपि अन्तःकरणेऽपि बहिः बाह्य पदेशे इव पश्यतः जानतः, अथ च विलोकयतः तब ते इयम् एषा अधिका वृहती का अपि विलक्षमा हष्टेः शानस्य अथ च दर्शनस्य ('दृष्टिर्शानेऽक्ष्यि दर्शने' इत्यमरः) सृष्टिः रचना (प० तत्पु० ) अस्तीति शेषः। तव दृष्टिः-ज्ञानं विलोकनं च असाधारणी वर्तते / स्वार्थपरतैव न हिता, परहितमपि करणीयम् इति त्वम् मनसि तथैव पश्यसि ( नानासि ) यथा स्वसहस्रनेत्रैः वहिः पश्यसि ( विलोकयसि ) इति भावः / / 23 / / ग्याकरण--अतिथिसास्करवाणि देकर अतिथियों के अधान करने अर्थ में सात् प्रत्यय (तदधीन वचने, 'देयेत्रा च' 5 / 4 / 55) करवाणि विध्यर्थ में लोट् / अनुवाद-भारी सम्पदाओं को दान में अतिथियों को सौंप दूँ, अपने आर ही (संपदाओं का) उपभोग हितकर नहीं होता। इस तरह अन्तःकरण में भी बाहर की तरह देखते ( जानते), विलोकन करते हुए तुम्हारी यह नही भारी कोई ( विलक्षय) दृष्टि-( शान-दृष्टि, विलोकन दृष्टि ) रचना है / / 23 / / टिप्पणी-इन्द्र को हजार आँखें होती हैं। उनसे जिस तरह वह बाहर देखा करता है, उसी तरह उसको भीतरी दृष्टि-शान दृष्टि मो है जिससे वह सभी बातों के भले-बुरे का विवेचन करता है। वह दोनों आँखों से देखता है / शान-चक्षु और चर्मचक्षु भिन्न होते हैं। उनका देखने का व्यापार मी मिन्न 2 होता है किन्तु कवि ने 'दृष्टि' और 'पश्यतः' में श्लेष रखकर उनका अभेदाध्यवसाय कर दिया है, इसलिये यहाँ मेदे अमेदातिशयोक्ति है। 'वहिरिव' में उपमा है। दृष्टि में अधिकता बताने से व्यतिरेक भी है / विद्याधर के कथनानुसार यहाँ इन सब का संकर है / 'दृष्टि' 'सृष्टि' में पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आः स्वभावमधुरैरनुमावैस्तावकैरतितरां तरलाः स्मः / द्यां प्रशाधि गलितावधिकालं साधु साधु विजयस्व विडोजः // 24 // अन्वयः-हे बिडीजः ( वयम् ) स्वभावमधुरैः तावकैः अनुभावैः प्राः / अतितराम् तरलाः स्मः / ( त्वम् ) गलितावधिकालम् साधु द्याम् प्रशाधि, ( तथा ) साधु विजयस्व / ____टोका--हे बिडोजः इन्द्र ( 'विडोजाः पाकशासनः' इत्यमरः ) वयम् स्वभावेन निसर्गुण मधुरः रमणीयः तावकैः त्वत्सम्बन्धिमिः अनुमावैः प्रमावैः अथवा मति-निश्चयः ('अनुमावः प्रभावे च सतां च मति-निश्चये' त्यमरः ) श्राः इति हष अतितराम् अत्यन्तम् यथा स्यात्तथा तरताः

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