________________ पञ्चमसर्गः सामिशापमिव नातिथयस्ते मां यदद्य भगवन्नुपयान्ति / तेन न श्रियमिमा बहु मन्ये स्वोदरैकभृतिकार्यकदर्याम् // 16 // अन्वय-हे मगवन् ! ते अतिथयः सामिशापम् इव माम् अथ यत् न उपयान्ति, तेन स्वोद..ाम् इमाम् श्रियम् ( अहम् ) न बहु मन्ये / / ____टीका-हे भगवन् मुने! ते वीरा अतिथयः अभ्यागताः अभिशापेन शापेन सह वर्तमानम् (ब० बी०) शप्तमित्यर्थः इव माम् इन्द्रम् अद्य अस्मिन् दिने इदानीमित्यर्थः यत् यस्मात् न रुपयान्ति उपगच्छन्ति, तेन कारणेन स्वस्य आत्मनः यत् उदरम् जठरम् तस्य एका केवला ( उभयत्र प० तत्पु० ) या भृतिः मरणम् एव कार्यम् कृत्यम् प्रयोजनमित्यर्थः ( उभयत्र कर्मधा० ) तेन कदर्याम् कृपणाम् कुत्सितामिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) इमाम् एताम् निजाम् श्रियम् लक्ष्मीम् धन-समृद्धिमिति यावत् न बहु अनितराम् मन्ये न संभावयामि, अतिथ्यादि-निमित्तम् अनुपयुज्यमाना केवल-स्वोदरभरणपरी स्वसमृद्धि प्रति नाहं बहु महत्त्वं ददामीति भावः // 16 // ___ व्याकरण-भगवन् मगः ऐश्वर्यम् अस्यास्तीति मग+मतुप्, म को व, सम्बोधन / अतिथि के लिए पीछे श्लोक 4 देखिए / अमिशापः अमि+Vशप्+घञ् ( मावे)। अच-इदम् को अश् और घ ('इदमोऽश् घश्च' वार्तिक ), लेकिन यास्काचार्य के अनुसार 'अद्य' शब्द 'अस्मिन् छवि' इन दो शब्दों के आदि के (अ+घ) अक्षर लेकर संक्षिप्त रूप बनाया गया है। जो लोग यू. एन्. ओ०, उ० प्र० आदि की तरह आद्य अक्षरों से बनने वाली संक्षिप्त शब्द-प्रक्रिया ( Initial) को अंग्रेजो की देन मानते हैं, वे भ्रममें हैं / शुदि, वदि आदि शब्द भी इसी तरह बने हुए हैं। भृतिः भृ+त्तिन् ( मावे ) / कदय ( विशे० ) अतु० ( गन्तुम् ) योग्यम् इति /ऋ+यत्, अर्यम् कुत्सितम् अर्यम् इति कुरितत शब्द को कदादेश+टाप् ( स्त्रियाम् ) __ अनुवाद-हे भगवन् ! वे ( वीर ) अतिथि अमिशाप प्राप्त किये हुए-जैसे मेरे पास आज जो नहीं आ रहे हैं, उससे मैं केवल अपना ही पेट मरने के प्रयोजन से कुत्सित-कृपण-बनी अपनी इस लक्ष्मी-धन-सम्पत्ति को अधिक महत्त्व नहीं देता हूँ॥ 16 // टिप्पणी-कदर्याम् अर्य प्रभु और सेठ को मो कहते हैं ( 'अर्यः स्वामि-वैश्ययोः' इत्यमरः)। वह अयं कदर्य है, निन्दित स्वामी अथवा सेठ है जिसकी धन-दौलत अपना पेट भरने मात्र हेतु है, बल्कि जो अपने पेट को मी मारता है, उसको धन-दौलत हुई तो क्या, नहीं हुई तो क्या / इस सम्बन्ध में 'देखिए' मनु क्या कहते हैं-आत्मानं धर्मकार्य च पुत्रदारांश्च पीडयेत् / लोमाढयः पितरौ भ्रातृन् स कदर्य इति स्मृतः // (4 / 210, 224) यही बात याशवल्क्य ( 1 / 161 ) ने मी कही है। इन्द्रका माव यह है कि आतिथ्यादि पवित्र कार्यों में व्यय हुई धन-सम्पत्ति ही सार्थक होती है। अन्यथा व्यर्थ / 'साभिशापमिव' में उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृस्यनुप्रास है। पूर्वपुण्यविमवव्ययलब्धाः श्रीमरा विपद एव विमृष्टाः / पात्रपाणिकमलार्पणमासा तासु शान्तिकविधिविधिदृष्टः // 17 // 1. सम्पदो।