________________ 279 चतुर्थसर्गः . रचय चारुमते ! स्तनयोवृतिं गण र केशिनि ! कैश्यमसंयतम् / अवगृहाण तरङ्गिणि! नेत्रयोर्जलझराविति शुश्रविरे गिरः // 114 // अन्वय-अथ (कन्यान्तःपुरे ) "हे कले, स्फुटम् श्वसिति कलय"; "हे चले, पक्ष्म चलति, परिमावय"; "मेनके, अधर-कम्पनम् उन्नय"; "हे कल्पलते, ( एषा) किमपि जल्पति, शृणु"; "हे चारुमते, (अस्याः ) स्तनयोः वृतिम् रचय": "हे केशिनि, ( अस्याः) असंयतम् कैश्यम् कलय", 'हे तरङ्गिणि, नेत्रयोः जल-झरौ अवगृहाण" इति गिरः शुश्रुविरे।। टीका-अथ दमयन्त्या ईषत्संशाप्राप्यनन्तरम् ( कन्यान्त:पुरे ) हे कले, ( एतत्संशक- ) सखि, ( इयम् ) स्फुटम् प्रकटम् स्वसिति वासोच्छ्रामौ प्रवर्तयति, इति कलय विचारय पश्येति यावत 'हं चले, ( एतानि सर्वाणि दमयन्त्याः सखीनां नामानि ) / अस्याः ) पचम नेत्रलोम चलति चन्चलीमवति, एषा नेत्र उन्मीलयितुभिच्छनीत्यर्थ: परिभावय विचारय, हे मेनके, ( अस्याः) प्रधरस्य निम्नोष्ठस्य कम्पनम् स्फुरणम् (10 नत्पू०) उन्नय अनुमिनु; हे कल्पलते, (एषा) किमपि जल्पति वदति, शृणु आकर्षय; 'हे चारुमते, ( अस्याः स्तनयोः कुचयोः वृतिम् आवरणम् रचय कुरु'; 'हे केशिनि ( अस्या: ) प्रसंयतम् अबद्धम् विशीर्णमित्यर्थः कैश्यम् केशसमूहम् कलय बधान'; 'हे तरङ्गिणि, ( अस्याः ) नेत्रयोः नयनयोः जलस्य वाष्पस्य मरौ प्रवाही (प. तत्पु० ) अवगृहाण पृथक् कुरु प्रोन्छेत्यर्थः' इति एवंप्रकाराः गिरः कथनानि शुश्रविरे बहिः स्थितैः जनैः श्रुता / / 113-114 // व्याकरण-परिमावय-परि+ +पि+लोट् म० पु० / वृतिम् वृ+क्तिन् (मावे) कैश्यम् केशानां समूह इति केश+यञ् / शुश्रुविरे श्रु+लिट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-इसके बाद ( कन्यान्तःपुर में ) हे कला ! देख, यह प्रत्यक्षतः सांस ले रही है'; 'हे चला, सोच तो सही, ( इसकी ) पलक हिल रही है'; 'मेनका, अनुमान लगा इसका अधर फड़क रहा है'; 'कल्पलता, सुन ( यह ) कुछ बोल रही है'; 'चारुमति, ( इसके ) सनों को ढक'; 'केशिनी' ( इसके ) बिखरे बालों को वाँध'; 'तरङ्गिप्पी, (इसके ) नेत्रों का अश्रुप्रवाह पोंछ' इस तरह की ( सखियों के बीच ) बाते (बाहर ) सुनायो दी // 113.114 // टिप्पणी-उपरोक्त दो श्लोक 'युग्मक' हैं। युग्मक उसे कहते हैं जहाँ एक ही वाक्य दो श्लोकों तक चला जाता है। यहाँ दमयन्ती को सखियों के सभी नाम कल्पित हैं। नाम मी कविने उनके व्यापार के अनुसार रखे हैं / जैसे-'कलय' से कला, 'चलति' से चला इत्यादि / विद्याधर के अनुसार यहाँ स्वभावोक्ति है, क्योंकि किसी को मूर्छा आजाने पर ये सभी बातें स्वमावत: ही हुआ करती हैं। 'कले' 'कल', 'चल' चले' में छेक, 'जल्प' 'कल्प' पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास, 'केशि' 'कैश्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कलकल: स तदालिजनाननादुदलसद्विपुलस्त्वरितेरितैः / यमधिगम्य सुतालयमीयिवान् तदरः स विदर्भपुरन्दरः // 115 // 1. मेतवान्। 2. द्रुततरः /