________________ चतुर्थसर्गः टीका-(हे दमयन्ती-सख्यः !) वःयुष्माकम् पयस्यया सख्या दममन्त्या कतिपयः कतिभिश्चन स्वल्पैरित्यर्थः दिवसैः दिनैः स्वयम् प्रात्मना अमिलष्य कामयित्वा वरीयान् अतिशयेन श्रेष्ठो वरः वरिष्यते वरणं करिष्यते, अचिरं स्वाभिलाषानुसारं सा वरं वरिष्यतीत्यर्थः, तत् अथ इदानीम् अनया दमयन्त्या भवस्यो विधा प्रकारः यातां तथाविधानां (ब० वी० ) मवादृशीनां सबीनाम् विधामिः उपचार-प्रकार: शिम्नः कृशतायाः शमनया शमनेन अपाकरणेनेत्यर्थः रुचिः कान्तिः पूर्वतनी स्वाभाविकी सौन्दर्य-दीप्तिरित्यर्थः प्राप्तुम् प्राप्तम् उचिता योग्या। युष्मामिरस्याः तयाविधोपचारः कर्तव्यः, यथास्याः कृशत्वमपेयात्, पूर्वतनसौन्दर्यञ्चयमाप्नुयादिति भावः // 121 // व्याकरण-वरीयान् अतिशयेन वरः इति वर+ईयसुन् / क्रशिमा कृशस्य कृशाया वा माव इति कृश+इमनिच, ऋ को र आदेश / शमना शम् + णिच्+युच्, यु को अन+ टाप रुचिः Vरुच् +/कि ( भावे) अनुवाद-(हे सखियो ! ) तुम्हारी सखी ( दमयन्ती ) कुछ ही दिनों में स्वयं चाहकर ( अपने लिए ) श्रेष्ठ वर का वरण कर लेगी, इसलिए अब तुम जेंसियों ( सखियों ) के ( किये हुए उपचार के) प्रकारों से उचित है कि यह ( दमयन्ती ) (अपनी) कृशता निराकरण द्वारा (पहली जैसी स्वाभाविक) सौन्दर्य-च्छटा प्राप्त करले // 121 // टिप्पणी-भवद्विधाविधाभिः ध्यान रहे कि हमने अपनी 'छात्रतोषिषी' टीका के लिए मूलपाठ नारायण का अपनाया है। तदनुसार 'भवद्विधाविधाभि:' का अर्थ करने में हमें 'उपचार-शब्द का अध्याहार करना पड़ रहा है। चाण्डूपंडित ने भो नारायण का पाठ लिया है, किन्तु मल्लिनाथ, विद्याधर और नरहरिने 'भवद्विधामिधामिः' पाठ दे रखा है और 'अभिधाभिः' का अर्थ 'वचोभिः' किया है अर्थात तुम्हारे कहने-कहलाने, समझाने-बुझाने से। इसमें विधा के साथ उपचार शब्द का अध्याहार नहीं करना पड़ रहा है। 'क्रशिमशमनया-हमने 'शमना शब्द को विशेष्य मानकर करण में तृतीया रखो है, किन्तु नारायण इसे विशेषण शब्द मान रहे हैं जिसका वे या तो रुचि से या फिर 'अनया' से सम्बन्ध जोड़ते हैं / विद्याधर भी नारायण का ही अनुसरण किये हुए हैं। नारायण के अनुसार 'क्रशिमानं शमं = शान्ति नयति =प्रापयतीति शिमशभनया रुचि अर्थात् जो रुचि कृशता का शमन कर देती है। नय शब्दको वे नो से पचायच् करके बनाते हैं / अथवा इसे 'अनया' के साथ बोड़ते हुए वे 'क्रशिम्नः शमनया' अर्थ करते हैं अर्थात् कृशता का शमन ( निराकरण) किये हुए दमयन्ती' / यहाँ 'शमना' शब्द नन्द्यादित्वात् 'अष्ट' प्रत्यय जोड़कर बनाना पड़ेगा। लेकिन इस तरह को बँचातानी में न पड़कर हमने 'शमना' को सीधा करणार्थ में तृतीयान्त विशेष्य मानने में ही स्वारस्य समझा हैं / यहाँ 'नया' 'नया' और 'रुचि' 'रुचि' में यमक, 'वरि' 'वरी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एवं यद्वदता नृपेण तनया नाच्छि लज्जापदं यन्मोहः स्मरभूरकल्पि वपुषः पाण्दुत्वतापादिभिः / यच्चाशीःकपटादवादि सदृशी स्यात्तत्र या सान्त्वना तन्मत्वालिजनो मनोऽब्धिमतनोदानन्दमन्दाक्षयोः // 122 //