________________ पञ्चमसर्गः 296 कि जिससे वह स्वयं उनके तेज से यों पराभूत न हो बैठे जैसे दिन के तेज से चन्द्र / चन्द्रमा के साथ तुलना करने से उपमा है। विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति भी कही है। संभवतः उन्होंने सूर्य और नारद के विभिन्न तेजों में अमेदाध्यवसाय अथवा नारद के तेज के साथ दाहकत्व का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध माना हो। 'तापन' 'तपनः' में छेक 'तावदेव' 'यावदेव' पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पर्यभूद्दिनमणिर्द्विजराजं यत्करैरहह तेन सदा तम् / पर्यभूत् खलु करैर्द्विजराजः कर्म कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते ? // 6 // अन्वय-यत् दिनमणिः द्विजराजम् करैः पयंभूत् अहह ! तेन द्विजराजः तदा तम् करैः पर्यभूत खलु / अत्र कः स्वकृतम् कर्म न भुङ्क्ते ? ____टीका-यत् यस्मात् कारप्पात् दिनमणिः सूर्यः ( 'प्रद्योतनो दिनमणिः' इत्यमरः ) द्विजानाम् नक्षत्राणां राजा चन्द्रः अथ च द्विजानां ब्राह्मणानां राजा ब्राह्मणोत्तमः तम् ( 10 तत्पु०) करैः किरप्पैः स्वतेजसेत्यर्थः पर्यभूत् पराभूतवान् , अहह ! खेदे, तेन तस्मात्कारपादेव द्विजराजः ब्राह्मणोत्तमः अथ च चन्द्रः तदा तस्मिन् काले तम् दिनमणि करेः पयंभूत् खलु इत्युत्प्रेक्षायाम् / अत्र अस्मिन् संसारे कः जनः स्वेन आत्मना कृतम् विहितम् ( तृ० तत्पु० ) कर्म सदसच्चेष्टितम् न भुङ्क अश्नुते तत्फलं प्राप्नोतीत्यर्थः। 'प्रत्युत्कटैः पाप-पुण्यरिहैव फलमश्नुते' इत्युक्त्या इह जन्मनि स्वकृतकमषां फलं प्रापिन इहैव प्राप्नुवन्तीति मावः / / 6 // __व्याकरण-द्विजः द्विर्जायते इति ( नक्षत्रम् ), तारे दिन को नष्ट हो जाते हैं, रात को दोबारा फिर उत्पन्न हो जाते हैं। द्विजः द्वाभ्यां जायते ( ब्राह्मण ) 'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते' ; द्विजराजम् राजन् शब्द समास में टच प्रत्यय होने से राम शब्द को तरह अकारान्त हो जाता है ( 'राजाहःसखिभ्यष्टच्' 5 / 4 / 61) / अनुवाद-खेद है कि सूर्य क्योंकि द्विजराज ( चन्द्रमा ) को अपने तेज से दबा बैठा था, इसीलिए मानो द्विजराज ( ब्राह्मणोत्तम नारद ) ने तब उस ( सूर्य ) को ( अपने ) तेज से दबा दिया हो / यहाँ ( संसार में ) कौन अपनी की हुई करणी ( का फल ) नहीं भुगतता ? // 6 // टिप्पणी-बेवारे निरपराध द्विजराज को सूर्य ने पराभूत किया, तो द्विजराज का सजातीय माई यह अनर्थ देखकर क्रुद्ध हो क्यों न सूर्य से बदला लेता और उसे अपनी करपी का फल चखाता ? 'जैसी करणी वैसी भरणी'। इसमें सूर्य के तेज की अपेक्षा नारद के तेज में अधिकता बताने से व्यतिरेक व्यंग्य है / दो विभिन्न द्विजराजों में अमेदाध्यवसाय होने से मेदे अमेदातिशयोक्ति और तन्मूलक खलु शब्द से प्रतिपाद्य उत्प्रेक्षा होने से दोनों का संकर है। अन्तिम पाद पूर्वोक्त विशेष बात का सामान्य बात से समर्थन कर रहा है, इसलिए अर्थान्तरन्यास है। 'पर्यभू' 'पर्यभू' तथा 'द्विजरा' 'द्विजरा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विष्टरं तटकुशालिमिरभिः पाद्यमय॑मथ कच्छरुहामिः / पद्मवृन्दमधुमिर्मधुपर्क स्वर्गसिन्धुरदितातिथयेऽस्मै // 7 //