________________ पञ्चमसर्गः 29. पर्वत-जैसा अर्थात् पाषाण-बुद्धि ( मूर्ख ) होता हुआ मी विबुधाधिप ( पंडितराज ) के पास चला आवे, तो दिन (ब्राह्मण ) होने के नाते वह क्यों न आदर-सत्कार का पात्र बने ? ब्राह्मण जातिमात्र से पूज्य माना गया है, मले ही मूर्ख क्यों न हो ( 'अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणों में सदाप्रियः' / कृष्ण ) / इस द्वितीय अप्रस्तुत अर्थ का प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये औपम्यमाव सम्बन्ध की कल्पना करके हम यहाँ इसे उपमा-ध्वनि कहेंगे। अदिमित् ने अद्रिकी पूजा को-शत्रु का सम्मान कियाइसमें विरोधामास है, जिसका परिहार अदि का दूसरा अर्थ अर्यात् पर्वतमुनि लेकर हो जाता है / इस विरोधामास से यह वस्तुध्वनि निकल रही है कि घर में आया शत्रु भी पूज्य होता है / विद्याधर यहाँ काव्यलिंग मी मानते हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तद्भुजादतिवितीर्णसपर्याद् द्यगुमानपि विवेद मुनीन्द्रः। स्वःसहस्थितिसुशिक्षितया तान् दानपारमितयैव वदान्यान् // 11 // . अन्वय-मुनीन्द्रः अतिवितीर्णसपर्यान् तद्भुजात् स्वःसह"तया दानपारिमितया एव तान् धुद्रुमान् अपि वदान्यान् विवेद / / ___टीका-मुनिषु ऋषिषु उत्तमः श्रेष्ठः ( स० तत्पु०) नारद इत्यर्थः, अति अतिशयेन वितीणों दत्ता ( प्रादि तत्पु० ) सपर्या पूजा ( कर्मधा० ) येन तथाभूतात् ( ब० वी० ) तस्य इन्द्रस्य भुजात् हस्तात् ( 10 तत्पु० ) स्वः स्वगें सह सार्ध स्थितिः अवस्थानं निवास इत्यर्थः ( सुप्-सुपेति समासः) तया कारणेन सुशिक्षिततया सम्यक् अधीतया अभ्यस्तयेति यावत् ( तृ० तत्पु०) दानस्य पारमितया अत्यधिकतया अत्यधिक-दानितयेतियावत् (प० तत्पु०) एव तान् प्रसिद्धान् दिवः स्वर्गस्य दुमान् वृक्षान् कल्पवृक्षानित्यर्थः ( प० तत्पु० ) अपि वदान्यान् दानशौण्डान् अत्यधिकदानिन इति यावत् ( 'स्युर्वदान्य-स्थूललक्ष्य-दानशौण्डाः' इत्यमरः ) विवेद शातवान् / स्वर्गीयकल्पवृक्षा अतिथिभ्यो यथेष्टं पदं ददति, तत् तैः यथेष्टदानिन इन्द्रभुजात् गुरुतः शिक्षितमिति भावः // 12 // व्याकरण-वितीयं-वि+त+क्त ( कर्मणि ) त को न, ऋको ईर् , न को प। सपर्या Vसपर्+यक+अ+टाप् / ०पारिमितया-परमस्य अत्यधिकस्य भावः इति परम+अण् ( मावे )= पारमम् , तदस्यास्तीति पारम+इन् (मतुबथें ) पारमी, पारमिणो मावः इति पारमिन् + तल+टा+१०)। अनुवाद-मुनिश्रेष्ठ ( नारद ) ने अत्यधिक पूजा-सत्कार देनेवाले उस (इन्द्र ) के हाथ से साथ-साथ स्वर्ग में रहने के कारण सोखी हुई अत्यधिक दानिता द्वारा स्वर्ग के वृक्षों ( कल्पवृक्षों) को भी अतिदानी समझा // 11 // टिप्पणी-वैसे तो कल्पवृक्षों में अर्थी को जो और जितना वह मोंगे, दे देने का गुण स्वामाविक है, लेकिन कवि की कल्पना यह है कि इन्द्र का हाथ और कल्पवृक्ष साथ-साथ स्वर्ग में रहते हैं, हाथ को अत्यधिक दान देता हुमा देखकर मानो कल्पवृक्षों ने भी हाथ से अत्यधिक दान देने की शिक्षा ले लो। सहवास से गुण-दोष पैदा होते ही हैं ( 'संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति' ) / शिक्षाग्रहण में कल्पवृक्षों का गुरु इन्द्र का हाथ बना। इस तरह हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो