________________ 29. नैषधीयचरिते नात्र चित्रमनु तं प्रययौ यत्पर्वतः स खलु तस्य सपक्षः। नारदस्तु जगतो गुरुरुच्चै विस्मयाय गगनं विललङ्घ // 2 // अन्वयः-पर्वतः तम् अनु यत् प्रययौ अत्र चित्रम् न, खलु स तस्य सपक्षः, तु जगतः गुरुः नारदः ( यव ) गगनम् विललङ्घ, ( तत् ) उच्चैः विस्मयाय ( अभूत् ) // 2 // टीका-पर्वतः एतदाख्यो नारदस्य सखा, अथ च शैलः ( 'पर्वतः शैल-देवयोः' इति विश्वः ) तम् नारदम् अनु पश्चात यत् प्रययो जगाम, अत्र अस्मिन् विषये चित्रम् आश्चयम् ( आलेख्याश्च. र्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः ) न नास्तीत्यर्थः खलु यतः स पर्वतः तस्य नारदस्य सपक्षः सखा, अथ च पक्षधरः अस्तीति शेषः / सखा सख्या सह गच्छत्येव, अथ च पक्षधरः ( पक्षसहितः ) पर्वतः पक्षिवत् गगने गच्छत्येव, इति न किमपि आश्चर्यकरमिति भावः, तु किन्तु जगत: संसारस्य गुरुः गुरुत्वगुणवान् पदार्थः अथ च आचार्यः नारदः गगनम् आकाशम् विललचे लावतवान् तत् उच्चैः अतितराम् विस्मयाय आश्चर्याय अभूदिति शेषः। गुरुत्वगुणविशिष्टं द्रव्यम्, नीचैः पतति, नतूच्चैः गच्छतीति भावः // 2 // व्याकरण-अनु तम् 'अनु' उपसर्ग के योग में द्वि० / सपक्षः पक्षेण सहितः ( ब० वी०)। विललचे वि+/लङ्घ +लिट् / विस्मयः वि+/स्मि+अच् ( मावे ) / अनुवाद-पर्वत ( ऋषिविशेष, पहाड़ ) उन ( नारद ) के पीछे-पीछे जो चल पड़ा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि वह उनका सपक्ष ( सखा; पंखोंवाला) था किन्तु बड़े मारो आश्चर्य की बात तो यह है कि जगत के गुरु ( मारी पदार्थ आचार्य ) नारद अकाश को लाँघ गए // 2 // टिप्पणी-पूर्वार्ध में पर्वत और सपक्ष शब्दों में श्लेष है। अमिधेयार्थ तो यह है कि पर्वत ( ऋषि ) नारद का सपक्ष (समर्थक, मित्र ) था, तो भित्र मित्रों का साथ जाना ठीक ही था, किन्तु शब्द-शक्ति से दूसरा अर्थ यह ध्वनित होता है कि पर्वत ( पहाड़ ) के सपक्ष पंखवाला था तो आकाश में जाने में कोई अनुपपत्ति नहीं, क्योंकि पहले पर्वतों के पंख हुआ करते थे और वे जिधर इच्छा हुई, उड़ कर चले जाते थे। यह तो बादकी बात है कि इन्द्र ने उनके पंख काट दिए थे। इस तरह इसे हम शब्दशक्त्युद्भव वस्तु-ध्वनि कहेंगे। द्वितीयाध में विरोधाभास है। नारद जगत के गुरु=मारी पदार्थ थे। उनका ऊपर-आकाश में जाना असंभव बात है क्योंकि न्यायशास्त्र के अनुसार गुरुत्ववान् अर्थात् भारी पदार्थ आकाश से पृथिवी पर गिर जाता है। यह तो विशान को खोज है कि पृथिवी अपनी आकर्षण-शक्ति ( Gravitation ) से पदार्थों को नीचे खींच लेती है / भारतीय दर्शनकार तो गुरुत्व को ही पतन का कारण मानते हैं। इस विरोध का परिहार गुरु शब्द का आचार्य अथवा उपदेशक अर्थ करने से हो जाता है। किन्तु उपदेशक होने पर भी विना साधन के आकाश-गमन की आपत्ति तो ज्यों को त्यों ही बनी हुई है। वे 'पर्वत' की तरह 'सपक्ष' तो थे नहीं, जो उड़ जाएँ। इसका उत्तर यास्काचार्य के शब्दों में हमारे पास यही है-'महाभाग्याद् देवतानाम्' ( सर्वमुपपद्यते ) अर्थात् देवता सर्वशक्तिसम्पन्न होते हैं। उन्हें साधन की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। नारद देव थे, देव-ऋषि थे / इसका दूसरा उत्तर स्वयं कवि अगले श्लोक में दे रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है।