________________ 272 नैषधीयचरिते भरिम् शत्रम् ( प० तत्पु० ) जीवितम् प्राणान् इच्छसि कांक्षति ?" मच्छत्रुभूनानां प्रणानां रक्षा त्वया नाकाङ्क्षपोयेति भावः / / 103 // म्याकरण-आश्रवा आ = समन्तात् शृपोतीति आ+/+अच् ( कतार ) +टाप् / जीवितम्/जीव+क्तः ( मावे / / अनुवाद-हमेशा हमारे कहने पर चलने वाली (हे दमयन्ता ) भला चाहने वाली की बात क्यों नहीं सुनतो ? बल पूर्वक भी अपने प्राणों की रक्षा कर"। "हे सखी! जो तू यदि मेरी ऐसी मला चाहनेवाली है तो मेरे शत्रु भूत प्राणों की रक्षा ( क्यों) चाहती है ? // 103 / / टिप्पणी-"मला चाहने वाली तू मेरे शत्रकी तरफदारी करे तो मेरा भला चाहने वाली तू काहे को ? मैं तेरी बात नहीं मानूंगी।" इस श्लोक में अधिकतर पिछले का अर्थ पुनरावृत्त समझिए / 'हित' 'हिता' और 'जीवित' जीवितम्' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अमृतदीधितिरेष विदर्भजे ! मजसि तापममुष्य किमंशुमिः ? / यदि भवन्ति मृताः सखि ! चन्द्रिकाः शशभृतः क तदा परितप्यते // 104 / / अन्वयः- "हे विदर्भजे ! एष अमृतदीधितिः ( अस्ति ) / ( त्वम् ) अमुष्य अंशुभिः तापम् किम् मजसि" 1 / “हे सखि ! शशभृत: चन्द्रिकाः मृताः मवन्ति, तदा व परितप्यते ?" टीका-“हे विदर्भजे वेदमि ! एष पुरो दृश्यमानः अमृतं सुधा दीधितिषु किरणेषु यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) चन्द्र इत्यर्थः अस्तीति शेषः। स्त्रम् अमुष्य अस्य सुधांशोः अंशुभिः किरणैः तापम् दाहम् किम् कस्मात् भजसि प्राप्नोषि ? अमृतमयः अंशुमिः तापस्यासंभवात् / " "हे सखि शशभृतः शशं बिभतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) कलङ्किनश्चन्द्रस्य चन्द्रिकाः ज्योत्स्नाः किरपा इति यावत् यदि मृताः मृत्यु प्राप्ताः मवन्ति, तदा क्व परितप्यते परिताप: स्याव" अर्थात् अस्य किरणा अमृताः ( वाक्छलेन ) न मृताः सन्ति अत एव परितप्यते, कृष्णपक्षे इव तेषां मृतत्वे परितापस्य प्रश्नो न उदीयेत, अमृतत्वे एव परितापः मृतत्वे च सुखम् / / 104 // व्याकरण-दीधितिः दीधीते ( दीप्यते ) इति /दीपी+क्तिन् ( भावे अथवा कर्तरि ) / यद्यपि दीधी धातु छान्दस है, लौकिक नहीं, तथापि इससे बना हुआ कृदन्त रूप लोक में प्रयुक्त हो रहा है। शशभृत् शश+/भृ+क्विप् ( कर्तरि ) तुगागम / परितप्यते परि+/तप+लट् ( माववाच्य ) / __ अनुवाद-“हे विदर्भदेश की राजकुमारो! यह ( सामने ) अमृतमय किरणों वाला ( चन्द्र) है। तुम इसकी किरणों से क्यों ताप प्राप्त कर रही हो?" "हे सखो ! शश-कलङ्की ( चन्द्र ) को किरणे ( अमृत अर्थात् मृत नहीं हैं ) मृत होती, तो कहाँ ताप होना था ?" // 104 // टिप्पणी-यहाँ सखी द्वारा अन्य अर्थ में प्रयुक्त अमृत शब्द का दमयन्ती द्वारा अन्य हो अर्थ में प्रयुक्त करने से श्लेष-वक्रोक्ति स्पष्ट ही है। 'अमृतदीधिति' और 'शशभृत्' शब्दों के सामिप्राय होने से परिकराकुर मो है। 'मुष्य' 'मंशु' में (ष-शयोरमेदात् ) और 'ताप' 'तप्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है।