________________ नैषधीयचरिते (नम्ब० 70) नकरहितमित्यर्थः कृतम् इति पदच्छेदः / दमयन्तो 'हृदयस्य' 'अनलंकृतम्' इति शब्दयस्य द्वितीयमर्थमादाय सखीम् उत्तरयति-“हे सखि आलि ! यदि स प्रसिद्धः मम प्रियतमः प्रेयान् नरूः हृदि स्वान्ते अपि व्यवधापितः अन्तर्धापितः हृदयादपि दूरीकृत इत्यर्थः तदा तहिं हता अस्मि मारिताऽस्मि // 108 // व्याकरण-स्फुटति स्फुट +शतृ+सत्सप्तमी। व्यवधापितः वि+अब+/घा+पिच् , पुगागम+क्तः (कर्मवाच्य ) अनुवाद-" हे दमयन्ती! ) काम-ज्वरके कारण तुम्हारे हार-मणि के टूट जाने पर तुम्हारा हृदय ( वक्षःस्थल, अन्तःकरण ) आज अनलंकृत (भूषण रहित; नल रहित किया हुआ ) है"। "हे सखी ! यदि वह मेरा प्रियतम ( नल ) हृदय ( अन्त:करण ) से भी व्यवहित-पृथक्-कर दिया गया है, तब तो ( हा ! ) मैं मारी गई !" // 100 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ श्लेष-वक्रोक्ति कही है, लेकिन हम देखते हैं कि श्लेषवक्रोक्ति में वक्ता और श्रोता शब्दों के दोनों अर्थों में अभिश होते हैं। हँसी-मखौल में एक दूसरे को बताने के लिए ऐसी द्वयर्थक भाषा वे प्रयोग में लाते हैं। लेकिन प्रकृत में यह बात नहीं क्योंकि दमयन्ती शब्दों का वस्तुतः ही दूसरा अर्थ समझती है। यही कारण है कि-जैसा अगले श्लोक से विदित होता हैवह हृदय को नल से खाली हुआ समझकर सचमुच मूर्छित हो पड़ती है। इसलिए यहाँ समझकर शब्दों से उत्पन्न भ्रान्ति के कारण भ्रान्तिमान् अलंकार होना चाहिए। 'हृद' 'हृद्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इदमुदीर्य तदैव मुमूर्छ सा मनसि मूच्छितमन्मथपावका। क सहतामवलम्बलवच्छिदामनुपपत्तिमतीमपि दुःखिता // 110 // भन्वयः-इदम् उदीर्य मनसि मूछित-मन्मथ-पावका सा तदा एव मुमूर्छ / अतिदु:खिता (सा) अनुपपत्तिमतीम् अवलम्ब-लव-च्छिदाम् छ सहताम् ? टीका-इदम् पूर्वोक्तश्लोकगतम् 'सखि हतास्मि' इति उदीर्य कयित्वा मनसि हृदये मूछितः समुच्छ्रितः वृद्धि प्राप्त इत्यर्थः मन्मथः काम एव पावकः वह्निः / उभयत्र मधा० यस्याः तयाभूतः (ब० वी०) सा दमयन्ती तदा एव तस्मिन्नेव समये मुमूच्र्छ मूच्छिताऽ भवत् / भतिशयेन दुःखिता (प्रादि तत्पु० ) दुःखमवाप्ता सा अनुपपत्तिमतीम् अनुपपन्नाम् असंभाव्यमानाम् शम्दसाम्येन भ्रमोत्पन्नामिति यावत् अवलम्बस्य नल-रूपस्य जीवनाधारस्य यो लवः लेशः तस्य छिदाम् उच्छेदम् ( उभयत्र प० तत्पु० ) हृदयादपि नलस्य दूरीकरणमित्यर्थः क कुत्र कस्मादिति यावत् सहताम् क्षमताम् न क्वापीतिकाकुः // 110 // ज्याकरण-उदीय उत् +/ईर् क्त्वा, क्त्वा को ल्यप् / अवलम्बः अव+Vलम्ब्+घन (भावे )/बिदा छिद् +अङ् ( भावे )+टाप् स्त्रियाम् / अनुपपत्तिमतीम् न उपपत्तिः अस्या अस्तीति उप+/पद्+क्तिन्+मावे+मतुप् +डी / अनुवाद-( 'सखी ! मैं मारी गई !' ) यह कहकर हृदय में बढ़ी हुई कामाग्नि को रखे वह