________________ 264 नैषधीयचरिते व्याकरण-जगते हितम् हितयोगे च' इस वार्तिक से च० / हतिः हन् +क्तिन् (भावे ) / श्रवणम् अयतेऽनेनेति श्र+त्युट ( करणे ) / ईशिष//+लट् (इट् ) ( मध्यम पु०)। भनुवाद-(हे कामदेव), तू जो अनङ्ग है, यह जगत् की मलाई के लिए है; बाण को कान तक चढ़ाकर मजबून भुजाओं से यदि तू ( बाण ) छोड़ सकता, तो कहाँ है वह मुनि, जो तेरे आघातों को सहता ? / / 93 / / ___ टिप्पणी -विना शरीर-अनङ्ग-होता हुआ भी तू इतनी विपत्तियों ढहा रहा है। यदि सशरीर रहता, तो तेरे प्रबल हाथों से किये बाण-प्रहारों के आगे बड़ा-से बड़ा भी योगी अथवा मुनि मी एक दम घुटने टेक देता / इस तरह कारण बताने से विद्याधर ने यहाँ काव्यलिङ्ग अलंकार बनाया है / 'हते' 'हतीः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनु पाप्त है। सह तया स्मर ! भस्म झटित्यभूः पशुपतिं प्रति यामिषुमग्रहीः / ध्रुवमभूदधुना वितनोः शरस्तव पिकस्वर एव स पञ्चमः // 94 // अन्वयः-(हे स्मर ! ) ( त्वम् ) पशुपतिम् प्रति याम् इषुम् अग्रहीः, तया सह झटिति भस्म अभूः / वितनोः तव अधुना पिक-स्वरः एव स पञ्चमः अभूत् ( इति ) ध्रुवम् / टीका-(हे स्मर, स्वम् ) पशूनाम् प्रापिनाम् पतिम् पातारम् पालकमित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) महादेवम् प्रति लक्ष्यीकृत्य याम् इषुम् बापम् ( 'पत्त्री रोप इषु द्वयोः' इत्यमरकोषानुसारेण इघुशब्दस्य स्त्रीत्वम् ) अग्रहीः गृहीतवान् तया इष्वा सह समम् झटिति सपदि भस्म प्रभूः मस्मतां गतः। जगद्रक्षकेष शिवेन जगत्कल्याणार्यव स्वम् बाप्प-सहित एव भस्मता नीत इति भावः / विगता विनष्टा तनुः शरीरं यस्य तथाभूतस्य (पादि ब० वी० ) तव ते अधुना इदानीम् पिकस्य कोकिलस्य स्वरः रुतम् पञ्चम-स्वर गानमित्यर्थः एव स भस्मीभूत इत्यर्थः पञ्चमः पञ्चानां प्रणः शरः भभूत् जातम् इति ध्रुवम् , शिव-दग्धस्ते पञ्चमो बाण इवेदानीम् कोकिल-पञ्चमस्वरः प्रतीयते इति मावः // 14 // व्याकरण-भग्रही: ग्रह+लुङ् / पञ्चमः पन्चन्+अन्। अनुवाद-(हे स्मर ) महादेव को निशाना बनाकर जो बाण तूने ग्रहप कर रखा था, उसके साथ-साथ ( हो) तू तत्काल भस्म हो गया था। इस समय ऐसा लगता है मानो कोयल का (पञ्चम) स्वर ही तेरा वह ( भस्म हुआ ) पञ्चम शर हो बैठा हो / / 94 // टिप्पणी-कोयल का पञ्चम स्वर विरहियों के लिए बड़ा उत्पीड़क होता है। उस पर कवि ने यह कल्पना की है कि मानो वह कामदेव के साथ-साथ हो मस्म हुआ उसका पंचम बाण हो। पंचम शब्द शिष्ट है-( 'पञ्चमो रागमेदे स्यात् पश्चानामपि पूरणः' इति विश्वः ) इस तरह यहाँ श्लिष्टोत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। स्मर ! स मद्दुरितैरफलीकृतो भगवतोऽपि मवदहनश्रमः / सुरहिताय हुतात्मतनुः पुनर्ननु जनुर्दिवि तत्क्षणमापिथ // 95 // 1. समं दुरिते।