________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ श्लोक का प्रथम पाद लौकिक सामान्य बात का प्रतिपादन कर रहा है, जिसका समर्थन बाद को कही हुई विशेष बात से हो रहा है, अतः सामान्य का विशेष से समर्थन-रूप अर्थान्तरन्यास अलंकार है। 'मति' 'पति' में पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास 'गते' 'गता' में छैक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अयि ! ममैष चकोरशिशुर्मुनेव्रजति सिन्धुपिबस्य न शिष्यताम् / अशितुमब्धिमधीतवतोऽस्य वा शशिकराः पिबत: कति शोकराः // 50 // अन्वयः-( अपि ) च अयि, मम एष चकोर-शिशुः सिन्धु-पिबस्य मुनेः शिष्यताम् न व्रजति ! अधिम् अशितुम् अधीतवतः अस्य पिवतः शशि-कराः कति शीकराः ? टीका-च अपि च अयि हे सखि, मम मे एषः अयम् चकोरश्वासौ शिशुश्च ( कर्मधा० ) अथवा चकोरस्य शिशुः बालकः (10 तत्पु०) सिन्धोः समुद्रस्य पिबस्य पानकर्तुः (10 तत्पु०) मुनेः अगस्त्यस्य शिष्यताम् छात्रत्वम् न व्रजति न गच्छति किम् ? अब्धिम् समुद्रं अशितुं मक्ष. यितुं पातुमित्यर्थः अधीतवतः पठितवतः अस्य चकोर-शिशीः पिबतः पानं कुर्वतः शशिनः चन्द्रस्य. कराः किरणाः (10 तत्पु०) कति कियन्तः शीकराः जलकणाः भविष्यन्ति स्वल्पा एवेत्यर्थः समुद्र. पान-शिक्षा प्राप्तवतः चकोरशिशोः चन्द्रकिरणपानं नितान्तं सुकरमिति मावः / / 58 / / व्याकरण-पिबस्य पिवतीति /पा+शः ( 'पा-घ्रा-मा-धेट-दृशः शः' 3 / 1 / 137 ) शका रादि प्रत्यथ होने से /पा को पिब् आदेश (पा-घा-मा० 7 / 3 / 78) / मल्लिनाथ ने पिबतीति पिवः, 'पाघ्राधमा' इत्यादिना शत-प्रत्यये पिबादेशः' इस तरह न जाने शतृ प्रत्यथ कैसे कह दिया। अग्धिम् आपो धीयन्तेऽत्रेति आप् + धा+किः ( अधिकरणे ) / भनुवाद-अपि च-हे सखी, मेरा यह चकोर का बच्चा सागर-पान कर जाने वाले मुनि (अगस्त्य ) का शिष्य ( क्वों) नहीं बन जाता है ? सागर-पान करना सोखे हुए इस ( चकोर के बच्चे ) के लिए पान करने की चन्द्र-किरणे कितनी बँदें होंगी ? ( मुश्किल से दो बूंद होगा) / / 58 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ विरोध अलंकार बताया है. क्योंकि चकोर का बच्चा और उसके द्वारा समुद्र-पान-ये विरुद्ध बातें हैं। ऋषि द्वारा समुद्रपान में विरोध नहीं; क्योंकि ऋषि लोगों में विशेष यौगिक शक्ति रहती है। मल्लिनाथ 'अत्र समुद्रपायिना दण्डापिकया शशिकरपानसिद्धरथापत्तिरलंकारः' कह गये हैं, किन्तु हमारे विचार से अापत्ति वहाँ होती है, जहाँ कोई बात शन्दतः नहीं, अर्थतः प्राप्त हो। यहाँ तो वह शब्दतः हो प्राप्त हो रखी है। हाँ, काकु-वक्रोक्ति अवश्य है। शिशुः 'शशि' 'शिक' 'शीक' में छेक भौर अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। 'चकोरशिशुः' में शिशु शब्द कहने से यह ध्वनित होता है कि शैशवावस्था में अध्ययन का अभ्यास खूब दृढ़ रहता है / राजाआ क यहा पालतू चकोर रखने का कारण यह है कि कहीं कोई षड्यन्त्र रचकर किसी को विष न खिला दें। चकोर विष का फौरन पता दे देता है, क्योंकि उसकी आँखें कहीं विष देखते ही लाल हो जाती हैं, इसके लिए देखिए कामन्दक- "चकोरस्य विरज्येते नयने विषदर्शनात्"। अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान के लिए पीछे श्लोक 51 पर देखिये /