________________ चतुर्थसर्ग: 'त्रिनयनों की बाढ़-अतिव्याप्ति-आ जाती। केवल महादेव ही एकमात्र त्रिनेत्र नहीं रहते। इसलिये अपनी त्रिनेत्रत्वकी महिमा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये ही मानो महादेव ने जलाकर तुझे अदृश्य कर लिया है। यह कवि की कल्पना है, इस लिये उत्प्रेक्षा है, किन्तु वाचक-शब्द न होने से वह प्रतीयमान ही है। साथ ही यह श्लेष भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पुरमिदा प्रसिद्ध शिल्पी मय राक्षस ने राक्षसों के रहने के लिए धु, अन्तरिक्ष और भू में क्रमशः सुवर्ण, रौप्य और कोह के तीन विशाल अमेद्य पुर बना रखे थे। वहां रहते हुये राक्षस जब देवताओं को बहुत ही तंग करने लगे, तो वे महादेव के पास आए और अपनी रक्षा हेतु उनमें प्रार्थना की महादेव ने राक्षसों के उन तीनों पुरों को नष्ट करके वहां रहने वाले राक्षसों का मी नाश कर दिया / इसीलिये महादेव 'पुरारि त्रिपुरारि आदि नामों से भी पुकारे जाते हैं। सहचरोऽसि रतेरिति विश्रुतिस्त्वयि वसत्यपि मे न रतिः कुतः ? / अथ न सम्प्रति सङ्गतिरस्ति वामनुमता न भवन्तमियं किल // 77 // अन्वयः-(हे स्मर ! त्वम् ) रतेः सहचरः असि' इति विश्रुतिः (अस्ति) / स्वयि वसति अपि ये रतिः कुतः न ? अथ साम्प्रतम् वाम् संगतिः न अस्ति, इयम् भवन्तम् न अनुमृता किल / टीका-(हेस्मर ! त्वम् ) रतेः एतन्नाम्न्या देव्या सहचरः सहगामी असि वर्तसे पियां रति बिना स्वमेकाको कुत्रापि न तिष्ठसीत्यर्थः इति एवं विश्रुतिः प्रसिद्धिः लोके प्रसरतीति शेषः / त्ववि वसति मम हृदये निवासं कुर्वत्यपि मे मम रतिः (प्रोतिः ) ( रतिः कामप्रियायां च रागेऽपि सुरवेऽपिच' इति विश्वः। कुतः कस्मात् कारणात् न विद्यते ? इति मम हृदये त्वमसि त्वत्सहचरी रतिस्तु नास्तीति मावः / त्वया सह स्वरसहचर्याऽपि भवितव्यमासीत् अथ अथवा साम्प्रतम् इदानीम् तव अनङ्गत्वात् वाम् युवयोः संगतिः साहचर्य नास्ति, किख यतः इयम् त्वत्पत्नी रतिः मवन्तम् न अनुमृता, त्वया सह चितामारूढा न 'सती' भूतेत्यर्थः // 77 // व्याकरण-सहचरः सह चरतीति सह+/चर+टः / रतिः रम्+क्तिन् ( मावे ) / वाम युवयो: को वाम् आदेश / अनुवाद-(हे कामदेव, तू ) रति ( अपनी पत्नी ) का सहचर है-यह प्रसिद्धि है ( किन्तु ) तेरे ( मेरे हृदय में ) रहते हुए भी मुझे रति ( खुशी) क्यों नहीं ( मिल रही ) 1 अथवा इस समय ( अनङ्गावस्था में ) तुम दोनों का साहयर्च नहीं रहा है, क्योंकि यह ( रति ) तेरे मर जाने पर तेरे साथ सती नहीं हुई है // 77 / / टिप्पणी-यहाँ दो विभिन्न रतियों-कामपत्नी और आनन्द-के विभिन्न होने पर भी श्लेष द्वारा अमेदाभ्यवसाय होने से भेदे अमेदाध्यवसाय रूपा अतिशयोक्ति है, परन्तु विद्याधर ने विमावना और हेतु अलंकार माने हैं। पूर्वार्ध में रति का सहचर रूप कारण होते हुए मी रति रूप कार्य के न होने से विशेषोक्ति बन सकती है, विमावना नहीं / क्योंकि वह तो कारण के विना कार्य होने पर ही होती है। लेकिन यदि रत्यमाव-रूप कार्य विना सहचरामाव रूप कारण के माना जाब तो विमावना और विशेषोक्ति का सन्देह-संकर ही बनेगा; शुद्धविमावना नहीं। उत्तरार्ध में