________________ नैषधीयचरिते रत्यमाव का हेतु रति का सती न होना बताने में हेत्वलंकार ठीक हो है। 'रते' 'रति' 'रतिः' में र और त की एक से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर अन्यत्र की तरह वृत्त्यनुप्रास रतिबियुक्तमनात्मपरज्ञ ! किं स्वमपि मामिव तापितवानसि ? / कथमतापभृतस्तव सङ्गमादितरथा हृदयं मम दह्यते ? // 70 // अन्वयः-हे अनात्म-परश / ( त्वम् ) रतिवियुक्ताम् माम् इव (रतिवियुक्तम् ) स्वम् अपि तापितवान् असि; इतरथा अताप-भृतः तव संगमात् मम हृदयम् कथम् दद्यते ? टीका-आत्मा च परश्चेति आत्म-परौ (द्वन्द्व ) आत्मपरी जानातीति आत्मपरशः (उपपद तत्पु०) न आत्मपरश० तत्सम्बुद्धौ (नम् तत्पु० ) अर्थात् त्वं नात्मानं न चापि परं जानातीत्यात्मपरविवेकशून्योऽसि, ( त्वम् ) त्या प्रीत्या वियुक्ताम् रहिताम् ( तृ० तत्पु०) माम् आत्मानम् इव रत्या स्वपल्या वियुक्तम् ( तृ० तत्पु०) स्वम् आत्मानम् अपि तापितवान् दग्धवान् असि, विवेकी पुरुषः शत्रुमेव तापयति, विवेकशन्यस्त्वम् तु शत्रणासहात्मानमपि तापयसीति ते महत् मूर्खत्वमिति भावः / इतरथा यदि एवं न स्यात् न तापं बिभर्ति वत्ते इति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु०) तव संगमात् ससर्गात् मम हृदयम् स्वान्तम् कथम् कस्मात् दयते ज्वलति ? त्वं मम हृदये स्थितः तपसि, स्वत्सम्पात एव हृदयमपि तपति संसर्गजा दोषगुणा मवन्तीति नियमादिति भावः / / 78 / / व्याकरण-परशः० पर/+शा+कः / इतरथा इतरत+थाल् ( प्रकारवचने ) / भृतः VF + विप् प० / अनुवाद-अपना और पराये का ( भेद ) शान न रखने वाले हे कामदेव, तू रतिरहित (बेचैन ) बना मेरी तरह रति ( पत्नी ) रहित अपने आपको भी क्यों तपा बैठा है, नहीं तो ताप न रखे हुए तेरे संसर्ग से मेरा हृदय क्यों जलता ? // 78 // टिप्पखी-यहाँ कामदेव को तुलना उस मूढ़ से की जा रही है, जो शत्रु पर कुल्हाड़ी मारने के साथ-साथ अपने पैरों पर मी कुल्हाड़ी मार दिया करता है, इसलिए उपमा है, जो रति शब्द में श्लेष-गर्मित है। विद्याधर ने उपमा के साथ-साथ अनुमान मी माना है, क्योंकि दमयन्ती के हृदय के ताप से कामदेव के ताप का अनुमान किया जा रहा है। 'तापि' 'ताप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अनुममार न मार | कथं नु सा रतिरतिप्रथितापि पतिव्रता / इयदनाथवधूवधपातकी दयितयापि तयासि किमुज्झितः ? // 79 // अश्रन्य-हे मार ! सा अतिप्रथिता अपि पतिव्रता रतिः कयम् नु ( स्वाम् ) न अनुममार? तया दयितया अपि इयद "पातकी ( स्वम् ) उज्झित: असि किम् ? टीका-मार काम सा पतिव्रता सतो अतिशयेन प्रथिता (प्रादि तत्पु० ) अतिपसिन