________________ चतुर्थसर्ग: पश्चिमदिशामिति यावत् ( वारुणो गन्धदूर्वायां प्रतीचीसुरयोरपि' इति विश्वः ) निषेग्य निपीय अय च प्राप्य पतितः भ्रष्टः अथ च अस्तमितः सन् पुनः मुहुः दिवम् स्वर्गम् अथ चाकाशम् किमु कयम् एति प्राप्नोति, मदिरापायो पापी ब्राह्मण: दिवम् (स्वर्ग) न एति, एष तु एति, तस्मात् चन्द्रो जात्या ब्राह्मयो नास्ति नाममात्रेण डित्यादिवत् ब्रह्मणः। ब्राह्मण-भ्रान्त्या मा तावदेनं त्यज, ममयैवेति मावः / / 70 // . व्याकरण-ईरितम Vir+क्तः ( मावे ) / द्विजः द्विर्जायते इति द्वि+/जन् +: ('जन्मना जायते शद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते'। ) वाहणी वरुणस्येयमिति वरुण+म+डीप् / अनुवाद-हे सखी ! मेरी ओर से राहु को बोल-"शत्रु ( चन्द्रमा ) को द्विजराज ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) समझकर तम छोड़ देते हो क्या? ( यह ठीक नहीं ) क्योंकि यदि ऐसा श्रेष्ठ (ब्राह्मण) होता, तो यह वारुणी ( मदिरा, पश्चिम दिशा ) का सेवन करके पतित ( भ्रष्ट; अस्त ) हुआ फिर क्यों धुलोक ( स्वर्ग, आकाश ) को जाता ?" / / 70 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने श्लिष्ट माषा का प्रयोग करके अच्छा नमत्कार दिखाया है। राहु को कहा गया है कि वह द्विजराज समझकर चन्द्र को न छोड़े। द्विजराज का अर्थ वह गलती से श्रेष्ठ ब्राह्मण समझ गया है जो कि चन्द्र की एक रूढ़ संशा मात्र है। वास्तविक ब्राह्मण मला कब वारुपी ( मदिरा) सेवन करता है, और सेवन करता भी है, तो पापी बना हुआ फिर कब बह घलोक (स्वर्ग ) गया ?' लेकिन यह ( चन्द्र ) जाता है। इमलिए इसे मार ही डालना चाहिये। कोई पाप नहीं।' विद्याधर ने चन्द्रमा पर चेतन व्यवहार-समारोप होने से यहाँ समासोक्ति कही है, किन्तु हमारे विचार से ममामोक्ति के मूल में यहाँ अतिशयोक्ति मी काम कर रही है, क्योंकि कवि ने विमिन्न द्विजराजों, वारुणियों, पतितों और घलोकों का यहाँ श्लेष द्वारा अमेदाध्यवसाय कर रखा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / दहति कण्ठमयं खलु तेन किं गरुडवद् द्विजवासनयोज्झितः / / प्रकृतिरस्य विधुन्तुद ! दाहिका मयि निरागसि का वद विप्रता ? // 71 // अन्वयः-हे बिधुन्तुद ! अयम् ( मक्षितः सन् ) कण्ठम् खलु दहति-तेन गरुडवत् ( स्वया ) विप्र-वासनया उज्झतः किम् ? अस्य प्रकृतिः ( एव ) दाहिका (अस्ति), निरागसि मयि का विप्रता ? वद। टीका-हे विधुन्तुद राहो ! अयम् एष चन्द्रः ( मया मक्षित: सन् ) कण्ठं गल दहति प्षति तेन हेतुना स्वया गरुडवत् द्विजस्य ब्राह्मणस्य वासनया बुद्धया ( प० तत्पु० ) उज्झितः त्यक्ताऽस्ति किम् ? यथा गरुडमक्षितः कश्चित् ब्राह्मणस्तत्कण्ठं दहन् गरुडेन त्यक्तः, तथा त्वमपि भक्षितम् स्वत्कण्ठं च दहन्तम् ब्रापोऽयमिति बुद्धया चन्द्रं त्यक्तवानप्ति किम् ? एतत् त्वया न सम्यक् कृतमिति भावः / यतः अस्य प्रकृतिः स्वभावः ( एव ) दाहिका दाहकत्री अस्ति, दाहकत्वमस्य स्वभाव एव, तत्कारणादेवायं मामिव स्वत्कण्ठं दहति न तु ब्राह्मणत्वात् , ( अन्यथा ) निरागसि निः=निर्गतम् भाग: अपराधो यस्थास्तषाभूतायाम् ( प्रादि ब० बी०) मयि माम् प्रति का कोदशी विप्रता ब्राह्मणत्वम् ,