________________ 232 नैषधीयचरिते वत् अमृतस्य अमृतमयस्य अथ च मृत्युम् अप्राप्तस्य तव ते परेषाम् अन्येषाम् मूर्धानं शिरः (10 तत्पु० ) विधूनयति प्रकम्पयतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) ईदृशः एतादृशः भूतः जातः, अथ च प्रेतः ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्ता अद्भुतम् आश्चर्थम् ( विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्यम् , इत्यमरः ) करोतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) अस्तीति शेषः। जगत्कल्याणकरस्य शिवस्य शिरसि स्थितोऽमृतमयश्च त्वम् अस्मान् विरहिणीः प्रति एतादृशो दाहको भवसीति विस्मयस्य स्थानम् , त्वया तु शिवसन्निधानात् अमृतधारणाच्च कल्याणकरेण उज्जीवकेन च भवितव्यमासीत् , अथ च प्रेतपतिम् आश्रितोऽ. मृत एव त्वम् एतादृशो भतो जातो यत् लोकानाविश्य तच्छिरांसि विधूनयसि, मृत एव हि जनो भूतः = प्रेतो भूत्वा भूतपतिञ्चाश्रितः परान् आविशति तेषां शिरांसि प्रकम्पय्य च पीडयति त्वं तु जीवित एव प्रेतो भूत्वा पीडयसीति विस्मयस्य स्थानमिति मावः // 55 / / व्याकरण-माहशाम् अहमिव दृश्यन्ते याः इति अस्मत् + दृश् + क्विन् ( कर्मणि) अस्मत् को मदादेश / भयङ्कर-भय+ +खच् मुम् का आगम। श्रित/श्रि+क्त ( कतरि ) विधू. ननी वि+Vधूञ् + ल्युट् ( कर्तरि ) नुम् का पागम / अनुवाद-हे शशलान्छन ! मुझ-जैसियों ( विरहिणियों ) को भय उत्पन्न कर देने वाला भूतपति (शिव ) के ( सिर पर ), टिका हुआ तू जो रात में जलता रहता है, यह अमृत ( सुधा )-रूप तेरा ऐसा होना दूसरे लोगों का सिर धुना देने वाले आश्चर्य में डाल देता है। (हे शशलान्छन, मुझ जसो ( विरहिणियों ) को भय उत्पन्न कर देने वाला, भूतपति (प्रेतराज ) का आश्रय लिये हुए तू जो सत में जलता रहता है ( अपना बोल बाला बनाये रखता है) यह अमृत ( बिना मरे ही) तेरा अन्य लोगों का सिर चकरा देने वाला भूतपना ( प्रेतत्व ) आश्चर्य-जनक है ) // 55 / / टिप्पणीशिव का सम्पर्क और अमृत-रूप होकर भी चन्द्रमा जो रात को जलाता रहता हैयह देखकर लोग आश्चर्य में सिर धुनने लग जाते हैं। दूसरी आश्चर्य की बात है बिना मरे हीजीते जी तुम्हारा प्रेतराज के पास चले जाना और भत बनकर दूसरों के सिरपर सवार हो जाना 'भूतपति का भूतानां पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानां पतिम् विभुत्वात् श्रेष्ठम् आकाशम्' ऐसा अर्थ मी हो ? ज्वलति को अन्तर्भावित णिच् मानकर यह अर्थ-निकलता है कि तू दर आकाश में रहकर, अमृतबल-रूप बनकर मी जलाता है : दूरस्थित और जलमय पदार्थ द्वारा जलाया जाना आश्चर्य ही है। इस तरह यहाँ श्लेषालंकार है। जलाने का कारण न होने पर भी जलाना कार्य होने से विमावना मी है / शब्दालंकारों में 'कल' 'कर' में ( रलयोरमेदात् ) और भूतताद्भुतकरी में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्राप्त है // श्रवणपूरतमालदनाङ्करं शशिकुरङ्गमुखे सखि ! निक्षिप / किमपि तुन्दिलितः स्थगयत्वमुं सपदि तेन तदुच्छ्वसिमि क्षणम् // 56 // अन्वयः-हे सखि, श्रवण "ङ्करम् , शशिकुरङ्गमुखे निक्षिप, तेन सपदि किमपि तुन्दिलितः सन् (मृगः) अमुम् स्थगयति (चेत् ), तत् क्षणम् उच्छ्वसिमि / टीका-हे सखि आलि, ( त्वम् स्वकीयं मम च ) श्रवणपूरः कर्णाभरणभूतःतमालदलाङ्करः