________________ 16 कहलाता है कि वह विरही-विरहिणियों से 'बहु संमानं लाति' अर्थात् बहुत संमान प्राप्त करता है न कि काला होने से और इसी तरह ममा मी इसलिए अमा कहलाती है कि उसके लिए विरहि. जनोंके संमान को कोई मा= हद ही नहीं रहती। न कि उसदिन चन्द्र और सूर्य के साथ-साथ रहने से चन्द्रमा के न होने के कारण कृष्णपक्ष और अमा ( अमावास्या ) के दिनों विरहियों की शान्ति रहती है। यही उक्त कल्पनाओं का प्राधार है। अतः यहाँ दो उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। शब्दालंकारों में 'बहु' 'बहु' में छेद (अर्थभेद ) न होने से यमक नहीं और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। - स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमात् किमु विधुं ग्रसते न विधुन्तुदः / निपतितं वदने कथमन्यथा बलिकरम्भनिमं निजमुज्झति // 64 // भन्वयः-स विधुन्तुदः स्व. भ्रमात् विधुम् ग्रसते किमु ? अन्यथा वदने निपतितम् निजम् बलिकरम्मनिभम् ( विधुम् ) कथम् उज्झति ? स्वः स्वकीयो यो रिपुः शत्रुः विष्णुरित्यर्थः ( कर्मधा० ) तस्य यत् तीचणं सुदर्शनम् ( 10 तत्पु० ) तीषणं निशितं सुदर्शनम् एतदाख्यं चक्रम् ( कर्मधा० ) तस्य विभ्रमात भ्रान्तेः (10 तत्पु० ) वर्तुलाकारस्वेन विष्प्योः सुदर्शन चक्रमिदमिति मत्वेत्यर्थः विधुम् चन्द्रमसम् असते निगलति किमु किम् ? अन्यथा सुदर्शनचक्रभ्रमाभावे चन्द्रोऽयमिति तत्त्वतो मत्वा ग्रसने बदने मुखे निपतितम् गतम् निजं स्वकीयम् बलये उपहाराय पूजार्थमिति यावत् यः करम्भः दधिमिश्रितसक्तः ( 'करम्मा दधि-सक्तवः' इत्यमरः) (च० तत्पु०) शुभ्रत्वात् तत्सहसमिति बलिकरम्मनिभम् ( उपमान तत्पु०) विधुमितिशेषः कथम् कस्मात् उज्मति मुश्चति तीक्ष्णमेतत् सुदर्शनं मा तावन्मे गलं कृन्तत्विति मत्वा राहुः चन्द्रं मुञ्चतीति भावः // 64 / / __भ्याकरण-विधुन्तुदः इसके लिए पीछे श्लोक 43 देखिए / बलिकरम्मनिमम् सदृश अर्थ में निम का करम्भ के साथ नित्य-समास / अनुवाद-प्रसिद्ध राहु अपने शत्र (विष्णु) के सुदर्शन चक्र के भ्रम से चन्द्रमाको नहीं निगलता है क्या ? नहीं तो मुँह के भीतर पड़े बलि-रूप दही-मिले सत्तके समान ( चन्द्रमा ) को क्योंकर छोड़ता ? टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ अनुमानालंकार है, क्योंकि मुँह के भीतर पड़े-पड़े को छोड़ देने से अनुमान किया जा रहा है, लेकिन मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ कवि ने यह कल्पना की है कि मानो यह सुदर्शन चक्र है अतः वे उत्प्रेक्षा मानते हैं / 'विधुं' 'विधु' में अर्थ-मेद न होने के कारण यमक न होकर छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निजं वलिकरम्भनिमम्-यहाँ कवि ने 'निजम्' इसलिए यह 'पदार्थः पदार्थ नान्वेति, न तु पदार्थकदेशेन' अथवा 'स्वविशेषणानां वृत्तिन, वृत्तस्य च विशेषणयोगो न' इस नियम के विरुद्ध होने के कारण च्युतसंस्कृति दोष के अन्तर्गत हो रहा है। स्वरिपु-पीछे श्लोक 51 में उल्लिखित समुद्र-मन्थन के सिलसिले में देवासुरों के प्रयत्न से