________________ 236 नैषधीयचरिते अनुवाद-समुद्र ने भीषण विषतुल्य चन्द्रमा को बाडवाग्नि की तरह (अपने ) भीतर ही क्यों नहीं रख लिया ? ( यदि ) उसने छोड़ मी दिया था, तो सर्वशक्ति-सम्पन्न शिव ( कालकूट ) विषकी तरह (इसे ) क्यों नहीं खा गये? टिप्पखी-यहाँ विद्याधर ने संदेहालंकार बना रखा है किन्तु दमयन्ती का सन्देह वास्तविक ही है न कि कल्पित / सादृश्यमूलक, विच्छित्तिपूर्ण कल्पित सन्देह ही अलंकार-प्रयोजक माना गया है, न कि 'शुक्तिवा रजतं वा'की तरह वास्तविक सन्देह / बडवानलवत् , बिषवत् इन दो उपमाओं की संसृष्टि स्पष्ट ही है / विषम शब्द में श्लेष है। विधु बडवानल से भी अधिक दाहक शक्तिवाला है, तमी तो समुद्र ने बाहर फेंका, कालकूट विष से भी अधिक भीषण है, तमी तो महादेव ने इसका पान नहीं किया, शिर पर धर दिया। इस तरह व्यतिरेक ध्वनित हो जाता है। शब्दालंकारों में 'डवा' 'लव' में ( डलयोरभेदात् ) तथा 'बुभु' विभुः में ( बवयोरभेदात् ) छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विषवत्-पीछे श्लोक 51 में उल्लिखित देवासुरों द्वारा समुद्र-मन्थन से 14 रत्न निकले, जिनमें चन्द्रमा सबसे पहले निकला और बाद को लक्ष्मी आदि निकले। इन्हीं में कालकूट विष मी था, जिसकी गन्ध मात्र से ही सब लोग वेहोश होने लगे। उससे सारे ही जगत को जल जाना था,लेकिन यह शिव ही थे, जो जगत्-शिव हेतु उसे पी गए जिससे उनका गला जलकर स्याह हो गया। तभी से उनका नाम नीलकण्ठ पड़ा / उक्त चौदह रत्नों का उल्लेख मङ्गलाष्टक के इस श्लोक में है लक्ष्मीः कौस्तुम-पारिजातक-सुरा धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावो कामदुधाः सुरेश्वरगजो रंभादिदेषाङ्गनाः / अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोऽमृतं चाम्बुघेः, रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्युः सदा मङ्गलम् / / भसितमेकसुराशितमप्यभून्न पुनरेष पुनर्विशदं विषम् / अपि निपीय सुरैर्जनितक्षयं स्वयमुदेति पुनर्नवमार्णवम् // 61 // अन्वयः-असितम् आर्यवम् विषम् एकं मुराशितम् अपि पुनः न अभूत् , पुनः एष विशदम् आर्णवम् ( विषम् ) सुरैः निपीय जनितक्षयम् अपि नवम् स्वयम् पुनः उदेति / टीका-असितं न सितं श्वेतम् कृष्णवर्णमित्यर्थः (नञ् तत्पु० ) भाणवम् समुद्रोत्पन्नं विषं कालकूटनामकम् एकेन केवलेन सुरेख देवेन महादेवेनेत्यर्थः ( कर्मधा० ) अशिवम् मक्षितम् (तृ० तत्पु०) अपि पुनः द्वितीयवारम् न अभूत् उत्पन्नममवत् , पुनः किन्तु एष चन्द्रमाः विशदं श्वेतम् आर्षवं विषम् सुरैः देवः निपीय पीत्वा जनितः कृतः यः नाशो यस्थ तथामृतम् (ब० बी०) अपि नवं नूतनम् स्वयम् आत्मना पुनः उदेति उत्पद्यते। कालकूटविषापेक्षया चन्द्रात्मकं विषमधिकमीषणमितिमावः // 61 // ग्याकरण-मार्णवम् अर्णवे जातमिति अर्णव+अय् (तत्र जातः 4 / 3 / 53 ) निपीय इसके लिये सर्ग 1 श्लोक 1 देखिये। अनुवाद-समुद्र का काले रंग का एक बिष ( कालकूट ) एक ही देवता ( महादेव ) द्वारा