________________ नैषधीयचरिते हुआ मी है-'यत्रास्याग्निं वागप्येति वातं प्रापश्चक्षुरादित्यं मनबन्द्रः, दिशः भोत्रं, पृथिवी शरीरमाकाशमात्मौषधीलोमानि, वनस्पतीन् केशा अप्सु रोहितं च रेतश्च' निधीयते" / यदि मत्यु होने पर दमयन्ती का मन चन्द्रमा में लीन नहीं हुआ, तो वेद में अप्रामाणिकता आ सकती है, लेकिन नहीं क्योंकि दमयन्ती के अनुसार-जहाँ तक कि उसके मन का प्रश्न है-वह भी वेदानुसार मृत्यु होने पर चन्द्रमा में ही लोन होगा पर वह आकाशस्थ चन्द्रमा नहीं होगा बल्कि भूतलस्थ नलमुखचन्द्रमा होगा | आकाशस्थ चन्द्रमा मूर्ख है, जिसने श्रुति को व्याख्या गलत की है, विद्वान् स्मरकी व्याख्या ठोक है / यहाँ नलमुख पर चन्द्रत्वारोप होने से रूपक है, साथ ही आकाशस्थ चन्द्रमा में दमयन्ती के मनोलय का सम्बन्ध होने पर भी असम्बन्ध बताने से सम्बन्ध में असम्बन्धातिशोयक्ति भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। मुखरय स्वयशोनडिण्डिमं जलनिधेः कुलमुज्ज्वलयाऽधुन।। अपि गृहाण वधूवधपौरुषं हरिणलाच्डन ! मुञ्च कदर्थनाम् / / 53 / / भन्वयः-हरिणलाञ्छन ! ( त्वम् ) स्व. डिण्डिमम् मुखरय; अधुना जलनिधेः कुलम् उज्ज्वलय; वधू-वध-पौरुषम् अपि गृहाण; (किन्तु ) कदर्थनाम् मुच्च / ___टीका-हे हरिणलान्छन शश कलक ? स्वम् स्वस्य आत्मनः यशसः कीतेंः नवडिण्डिमम् (उभयत्र 10 तत्पु०) नवं नूतनं च तत् डिण्डिमम् वाद्यविशेषम् ( कर्मधा.) मुखरय वादयः विरहिणीवधसम्बन्धि स्वयशो जगति प्रख्यापयेत्यर्थः, मां मारयित्वा यशो लभस्वेति भावः अधुना साम्प्रतम् जलनिधेः स्वपितुः रत्नाकरस्य कुलं वंशम् ईदृशकर्मभिः उज्ज्वलय प्रकाशय; वधूनां विरहिप्पोकुलवधूनाम् यो वधः हिंसा तस्य पौरुषम् शौर्यम् ( उमयत्र ) ( 10 तत्पु० ) अपि गृहाण अङ्गीकुरु, किन्तु कदर्थनाम् पीडाम् मुन्च त्यज, मा कदर्थय, त्वरितं मारयेत्यर्थः / / 54 / / __ व्याकरण-मुखरय मुखम् अस्यास्तीति मुख+रः (मतुबर्थ ) मुखरः ( वाचालः ) मुखरं करोतीति मुखर+णिच् +लोट् ( नामधातु ) पौरुषम् पुरुषस्य भावः कर्म वेति पुरुष+ अण् / कदर्थनाम् कु= कुत्सितः अर्थः कदर्थः, कु शब्द को कदादेश, कदर्थ करोतोति कदर्थ + णिच् + युच् ( मावे ) / अनुवाद-हे हरिणकलङ्को ( चन्द्र ) ! तू अपने नव यश की डुगडुगो बजा; अब रत्नाकर के कुल को चमका; (विरहिणी ) वधुओं की हत्या की बहादुरी मी अपना, ( किन्तु ) तंग करना छोड़।। 53 / / टिप्पणो-यहाँ विपरीत लक्षणा द्वारा 'उपकृतं बहु तत्र किमुच्यते' की तरह विधिपरक शब्द विपरीत अर्थ के प्रतिपादक हैं अर्थात् अपना अपयश मत फैला, अपने उच्च कुल को मत मलिन कर बेचारो विरहिणियों की हत्या की बहादुरो मत अपना। इसीलिए यहाँ विरहिपियों के वध की विधि केवल विध्याभास मात्र है, वास्तव में अभीष्ट नहीं, इसका ध्वनित अर्थ 'मत वध कर' है। इस तरह यहाँ आक्षेपालंकार का वह मेद-विशेष है, जहाँ विषं भुंव' की तरह विधि-निषेधपरक होती है / 'हरिणलान्छन' में पूर्ववत् परिकराङ्कर है। 'वधू' 'वध' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है।