________________ 220 नैषधीयचरिते पयोनिधी रत्नाकरे जन्म जन्म-ग्रहणम् यदि चेत् नगणितम् विचारितम् ( तहिं ) हरस्य शिवस्य शिरः मूर्धा ( प० तत्पु० ) भूः भूमिः निवासस्थानमित्यर्थः ( कर्मधा०) अपि विस्मृता विस्मृति नीता किम् ? लक्ष्मी-सदृशरत्नोत्पादकः पयोनिधिः तवाप्युत्पादक इति त्वं महाकुलीनोऽसि, निवासस्थानमपि ते महादेवमूर्धा, किन्तु एतदुभयं विस्मृत्य त्वमकुलीनानामिव जघन्यकर्म कस्मादाचरतीति मावः // 50 // व्याकरण-ईदृक् इदम् इव दृश्यते यदिति इदम् +/दृश किन् / कर्मणि) पयोनिधिः पयासि अत्र निधीयन्त इति पयस् नि+Vधा+कि। अपना रहा है ? यदि समुद्रमें से ( अपने ) जन्म का खयाल नहीं किया, तो महादेव के शिर पर (अपना ) निवास स्थान मी भूल गया है क्या ? // 50 / / टिप्पणी-यहाँ स्वयं न पूछकर सखी से पछवाने का कारण यह कि पापी से स्वयं बाते करना ठीक नहीं होता है। जो लोग कुलीन होते हैं एवं अच्छे-अच्छों का सहवास करते हैं, वे बुरे काम क्यों करें ? लेकिन चन्द्रने यह तथ्य उलट दिया है, इसलिए दमयन्ती का यह उलाहना है / 'मिद्' 'मिद' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। निपतापि न मन्दरभूभृता स्वमुदधौ शशलान्छन ! चूर्णितः। अपि मुनेर्जठरार्चिषि जीर्णतां बत गतोऽसि न पीतपयोनिधेः // 51 // अन्वयः-हे शशलान्छन, उदधौ निपतता मन्दर-भूभृता अपि त्वम् न चूर्णितः ( तथा ) पीतपयोनिधेः मुनेः जठराचिंषि अपि ( त्वम् ) जीर्थताम् न गतः असि बत।। टीका-शशलान्छन शशकलंकिन् लान्छित-कर्मन्निति यावत् चन्द्र, उदधौ समुद्रे निपतता पतनं कुर्वता मन्दरेण एतदाख्येन भूभृता पर्वतेन ( कर्मधा० ) अपि स्वम् चन्द्रः न चूर्णितः चूर्णता नीतः ( तथा ) पीतः आचभितः पयोनिधिः समुद्रो येन तथाभूतस्य (ब० वी० ) मुनेः अगस्त्याख्यस्य ऋषेः (प० तत्पु० ) जठरे उदरे अर्चिषि वद्वौ ( स० तत्पु० ) जीणताम् जीर्षमावम् न गतः न प्राप्तः असि इति वत खेदे इत्युभयत्र खेदस्य वातेंत्यर्थः॥५१॥ व्याकरण-भूभृत् भू+/भृ+विप ( कर्तरि ) / उदधिः इसके लिए पोछे श्लोक 48 देखिए / पयोनिधिः इसके लिए भी पिछला श्लोक 50 देखिए / अनुवाद-हे शशकलङ्किन् / खेद की बात है कि समुद्र में गिरते हुए मन्दराचल ने भी तुझे चूर चूर नहीं कर दिया ( तथा ) समुद्र-पान कर जाने वाले मुनि ( अगस्त्य ) की जठराग्नि में मी तू हज्म नहीं हो गया / / 51 / / टिप्पणी-यहाँ चूर-चूर हो जाने तथा हज्म हो जानेका कारण होते-होते मी चूर-चूर और हम्म होना रूपी कार्य के न होने से विमावना अलंकार है। चन्द्रमा के लिए विधु आदि शब्द प्रयुक्त न करके शश-कान्छन शब्द का प्रयोग प्रकृत में सामिप्राय होने से परिकराकर अलंकार भी है शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / मन्दरभूमृता-सृष्टि के आदिकाल में जब अमृत हेतु देवताओं और दानवों