________________ चतुर्थसर्गः 22. मारपम् ( ष. तत्पु० ) तस्य तज्जनितरित्यर्थः पातकैः पापैः ( कर्तृभिः) (10 तत्पु०) अमा मध्यमपद लोपोस० भ्रमिम् भ्रमणम् अवाप्य प्रापय्य शितिः कृप्या ( 'शितिः घालमेची इत्यमरः ) या निशा रात्रिः कृष्याशीया रात्रिरित्यर्थः (कर्मधा० ) एव पद शिला तस्याम् (कर्मधाने स्फुटन्तः पतन-वेगात् विदयमाषाश्च उत्पतन्तः-उपरि गच्छन्तश्च ये कणगयाः ( उमयत्र कर्मधा० ) कणानां खण्डाना गयाः समूहाः ( १०तत्प०) तैः अधिकं भृशं यया स्यात्तया तारकितम सजाततारकम् तारक युक्तमिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) अम्बरम् आकाशम् कर्मधा० यस्मात् तथाभूतः (ब० वी०) सन् दिवः स्वर्गात् अथ चाकाशात् पात्यते अवो निश्चिप्यते खलु / कृष्णपक्षीयनिशायां चन्द्रामावतारकाणि विरहियो-वध-पातके निशा-शिलाया पातितस्य चन्द्रस्य विशो र्यानि सहस्रशः लघुखण्डानीव प्रतीयन्ते इति भावः / / 46 / / व्याकरण-भ्रमिः भ्रम् +इ। अवाप्य प्रब+ आप+पिच्+क्त, कत को ल्यप् से अवापय्य रूप बनना चहिए था, किन्तु 'विभाषाऽऽप:' (6 / 4 / 57 ) से विकल्प से अयादेश का अमाव हो गया है। तारकित तारक इतच अथवा तारकाणि अस्यास्तीति तारक+प्रतुप् , तारकवत् करोतीति (नामधातु ) +णिच् +क्त, मतुप का ‘विण्मतोलुंक' से लोप अथवा बिना मतुप के मी तारकं तारकवत् ( सुखादयो वृत्ति-विषये तद्वति वर्तन्ते ) करोतीति / अनुवाद-यह ( चन्द्रमा ) विरहिणी स्त्रियों के बध से उत्पन्न पापों द्वारा चुनाया जाकर काली रात-रूपी शिला पर स्वर्ग से-जैसे ( नोचे पटक दिया गया हो, जिसके टूटे हुए छोटे-छोटे टुकड़ों के समूह तारों के रूप में आकाश में छितर गए हों // 46 // टिप्पणी-पहले समय घोर पापी को दण्ड रूप में शिला पर ऐसे जोर से पटक कर मार दिया जाता था, कि जिससे उसकी हड्डी पसली टटकर ऊपर उछल कर बिवर जातो थो। चन्द्रमा की मी यही गति की गई अन्य देवताओं के साथ चन्द्र भी स्वर्ग में था। उसे मो उसके पापोंने उसके द्वारा की हुई अनेक हत्याओं के दण्ड-स्वरूप नोचे शिला पर पटक दिया जिससे उसके टुकड़े टुकड़े हो गए, जो उछल कर ऊपर आकाश में विखर गए। यह कवि की कृष्णपक्ष को चन्द्ररहित और अनेक तारों से भरी रात पर अनोखी कल्पना है। रात पर शिलात्वारोप और तारों पर विदोर्यमाण कप-गयत्व के आरोप से बने रूपक के साथ उत्प्रेक्षा है जो खलु शब्द द्वारा वाच्य है। शब्दालंकारों में 'वधू' 'वध' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। स्वममिधेहि विधुं सखि ! मगिरा किमिदमोगधिक्रियते स्वया। न गणितं यदि जन्म पयोनिधौ हरशिरःस्थितिभूरपि विस्मता // 50 // अन्वयः-हे सखि, मंद्-गिरा विधुम् अमिधेहि-( हेचन्द्र, त्वया इदम् ईदृक् किम् अधिक्रियते ? पयोनिधौ जन्म यदि न गणितम्, ( तहिं ) हरभूः अपि विस्मृता ?' टीका-हे सखि आलि मम गीः वाषी मुखमित्यर्थः तया ( ष. तत्प० ) मस्पातिनिध्येनेति यावत् विधुम् चन्द्रम् अमिधेहि हि- हे चन्द्र ) स्वया इदम् एतत् ई ईदृशम् विरहिबीवध-रूपं नृशंसं कर्म किम् कस्मात् अधिक्रियते अङ्गीक्रियते ? तव कृते पतत् नोचितमिति मात्रः /