________________ 221 नैषधीयचरिते ज्याकरण-जनः जन्+उः ( मावे ) / तन्महिमारत:-यहाँ सप्तमी तत्पु० से काम चल जाने पर भी मल्लिनाथ ने 'आदृतः महिमा ययेति' बहुव्रीहि करके 'वाऽऽहिताग्न्यादिषु' ( 2 / 2 / 37) निष्ठा का अग्न्याहित की तरह विकल्प से पर-निपात किया है। अनुवाद-सती ने काम-संतप्त हों हिमालय से जन्म लिया, न कि उसको महिमा का आदर करको महादेव के माल के नीचे लिखा सती का विरह ही जल रहा है, (वह) लोचन नहीं है // 45 // टिप्पणी-यहाँ दोनों श्लोकार्यों में प्रकृत का प्रतिषेध करके अन्य की स्थापना की जाने से अपह्न ति है / मल्लिनाथ पूर्वाध में उत्प्रेक्षा मानते हैं, जो गम्य हो सकेगी, वाच्य नहीं। उत्तरार्ध में उन्होंने आरोप्यापहवालंकार कहा है। सती-दक्ष प्रजापति की बहुत-सी कन्याओं में से एक का नाम सती था, जो उन्होंने महादेव को ब्याही थी। एक बार क्या हुआ कि दक्षप्रजापति ने एक बड़ा मारी यश रचा। बड़े बड़े समी देवताओं को निमन्त्रित किया, लेकिन साधारण देवता समझकर अपने दामाद महादेव को नहीं बुलाया। उन्हें बुरा लगा और इसे उन्होंने अपना अपमान समझा। पति द्वारा मना करने पर भो सती बिना बुलाये ही पिता के घर चल दी। वहाँ उसे किसी ने भी नहीं पूछा, तो अपने को अपमानित अनुमव करती हुई वह हवन कुण्ड में जलकर मस्म हो गई / महादेव ने सुना तो क्रोध में आग-बबूड़े हो यशस्थल में पहुँच गये और दक्ष प्रजापति सहित सबको नष्ट-ध्वस्त कर बैठे। बाद विरक्त हो वे कैलास में समाधि-मग्न हो गये। कुछ समय बाद दूसरे जन्म में सती ही हिमालय की पुत्री पार्वती बनी, जिसका फिर महादेव से हो विवाह हुआ। दहनजा न पृथुर्दवथुन्यथा विरहजैव पृथुर्यदि नेदृशम् / दहनमाशु विशन्ति कथं स्त्रियः प्रियमपासुमुपासितुमुधुराः॥ 46 // अन्वयः-दहनजा दवथु-व्यथा पृथुः न, ( किन्तु ) विरहजा एव पृथुः / यदि ईदृशं न, (तहिं ) स्त्रियः अपासुम् प्रियम् उपासितुम् उद्धराः ( सत्यः) कथम् आशु दहनम् विशन्ति ? टीका-दहनः अग्निः तस्माज्जायते इति तथोक्ता ( उपपद तत्पु०) दवथुः तापः तस्य व्यथा वेदना ( 10 तस्पु० ) पृथुः अधिका न, किन्तु विरहात् वियोगाज्जायते इति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० / एव व्यथा पृथुः भवतीति शेषः। यदि चेत् ईशम् एतादृशं न मवेदिति शेषः, तहिं खियः नार्य अप-अपगताः प्रसवः प्रायाः यस्य तथाभूतम् ( प्रादि ब० बी० ) मृतमित्यर्थः प्रियम् पतिम् उपा सितुं सेवितुम् प्राप्तुमिति यावत् उद्गताः धुरः ( यानमुखात् ) इति तथोक्ताः (प्रादि तत्पु० अथवा उद्गता धूः याम्यो यासां वेति (प्रादि 10 वी०) अनियन्त्रिता इत्यर्थः ( सत्यः ) कथम कस्मात् भाशु शीघ्र दहनम् अग्निम् विशन्ति प्रविशन्ति मृतपतिना सह चिताग्नौ प्रवेशं कुर्वन्तीति मावः॥४६॥ व्याकरण-दहनजा दहन+/जन् टा+टाप् / दवथुः, पृथुः इनके लिए पीछे श्लोक 12 देखिए। अनुवाद-अग्नि से उत्पन्न दाह-व्यथा अधिक नहीं होती, विरह से उत्पन्न व्यथा ही अधिक