________________ 15 चतुर्थसर्गः अनुवाद-मनुष्यों, देवताओं और ब्रह्मा में से जिस-जिसके जितने जितने समय (-मान ) से जिस-जिसका युग हुआ करता है, उसी तरह परस्पर संमोग अवस्था में रहने वाले युवा स्त्री-पुरुषों के क्षण-रूप में मापा हुआ समय विरही-विरहिणी स्त्री पुरुषों का भी ( युग-रूप में मापा हुआ समय ) मणित-शास्त्र में क्यों नहीं है ? टिप्पणी-सारे श्लोक का भाव यह है कि पति-पत्नी का संयोगावस्था में युग जैसा लम्बा काल मी क्षण-जैसा बीत जाता है जबकि वियोगावस्था में बही एक क्षण का समय युग-जैसा लगता है। ज्योतिषियों ने संयुक्तों और वियुक्तों के क्षण-युग नहीं गिने हैं। श्लोक में कवि द्वारा 'नर-सुराब्ज. भुवाम्' के साथ प्रयुक्त 'इव' शब्द टीकाकारों के लिए एक समस्या बन गया है। मल्लिनाथ 'मनुष्य. देवता ब्रह्मपामिव यावता अनेहसा कालेन यस्य जन्तोयुगं भवति' मथं करते हैं, जो समझ में नहीं आता। मला मनुष्यादि के युगों की तरह जन्तुओं-पशुपक्षियों-के युगों की गएना में कौन-सा तुक है ? नारायण मी काय वा अथवा के चक्कर में पड़ कर अन्त में 'यथाबुद्धि योजनीयः श्लोकः' लिख गये / वास्तव में 'इव' शब्द का सम्बन्थ 'तत्' शब्द से है। इसे हम कवि का अस्थानस्थपदता दोष कहेंगे जिसने टीकाकारों को गड़बड़ा दिया। अलंकार उपमा है तथा क्षण के साथ युगत्व का और युग के साथ क्षणत्र का असम्बन्ध होने पर भी सन्बन्ध बताने से अतिशयोक्ति मो है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। मनुष्यादि के युगादि को गणना इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में की गई है-मनुष्यों के 360 दिनएक वर्ष = देवताओं का एक अहोरात्र ( उत्तरायण दिन, दक्षिणायन रात), देवताओं के 12000 वर्ष =चार युग ( 4800 दिव्य वर्ष सत्ययुग, 3600 दिव्य वर्ष त्रेता, 2400 दिव्य वर्ष द्वापर 1200 दिव्यबर्ष कलियुग ) 1000 चार युगब्रह्मा का दिन, 1000 चार युग रात; ब्रह्मा के 500 वर्ष पराध, और दो परार्ध ब्रह्मा की परमायु होती है / जनुरधत्त सती स्मरतापिता हिमवतो न तु तन्महिमादृता / ज्वलति मालतले लिखितः सतीविरह एव हरस्य न लोचनम् // 45 // भन्धयः-सती स्मर-तापिता (सती) हिमवतः जनुः अधत्त, न तु तन्महिमादृता ( सती)। हरस्य माल-तले लिखितः सतीविरहः पव ज्वलति, लोचनम् न। टीका-सती एतन्नाम्नी दक्ष-कन्या महादेवस्य भूतपूर्वपत्नी स्मरेण कामेन तापिता महादेवविरहाग्निना तप्तेत्यर्थः / सती हिमवतः हिमालयात जनुः जन्म ('जनुर्जननजन्मानि' इत्यमरः) अधत गृहीतवती, न तु तस्य हिमवतः यो महिमा ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् आत्ता कृतादरा सती अर्थात् सतो जन्मान्तरे हिमालयात् पार्वती-रूपेण यज्जन्म गृहीतवती तत् अयं देवतात्मा' इति कृत्वा तं प्रत्यादरप्रदर्शनकारणान्न, अपितु तत्र जाताऽहं कामताप-शमनाय शैत्यं लमेयेति कारणात् / हरस्य महादेवस्य मालस्य ललाटस्य तल्ले नीचैः (10 तत्पु० ) लिखितः लिपीकृतः सत्याः स्वपूर्वपत्न्याः विरहः वियोगः एव ज्वलति दीप्यते लोचनं नेत्रं न अर्थात् माले तृतीयलोचनं न अपि तु प्रज्वलन् सतीविषयककामानलोऽस्तीति // 45 //