________________ चतुर्थसर्गः जाती है और मजबूती के लिए पत्थरों को भी उनके ऊपर घर देते हैं। किन्तु गोलाई साम्य को लेकर हो यहाँ बिल्व-फलों से ठोकना कहा है। कठिनाई में बिल्व मो पत्थर जैसे ही होते हैं। युवावस्था में कुचों का मी यही हाल है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। अतिशरव्ययता मदनेन तां निखिलपुष्पमयस्वधरव्ययात् / स्फुटमकारि फलान्यपि मुञ्चता तदुरसि स्तनतालयुगार्पणम् // 42 // अन्वया-ताम् अतिशरम्ययता, ( अतएव ) निस्ल "व्ययात् फलानि अपि मुञ्चता मदनेन तदुरसि स्तनतालयुगाणम् अकारि स्फुटम् / टीका-ताम् दमयन्तीम् अति अतिशयेन शरव्यं वेध्यं कुर्वता इत्यतिशरव्ययता भृशं लक्ष्यीकुर्वतेति यावत् अत एव निखिलाः सर्व पुष्पाणि एवेति पुष्पमया ये स्वाः स्वकीयाः शराः बापा: ( सर्वत्र कर्मधा० ) तेषां व्ययात् क्षयात् समाप्तिकारणादित्यर्थः ( 10 तत्पु०) फलानि अपि मुम्चता प्रहरता मदनेन कामेन तस्याः दमयन्त्याः उरसि वक्षसि स्तनौ कुचौ एव ताले तालवृक्षफले (कमधा०) तयोः अर्पणम् प्रक्षेप इत्यथः ( प० तत्पु० ) अकारि कृतम् स्फुटम् श्व / स्वपुष्पमय-बाप्पसमाधनन्तरं फलानि अपि प्रहरन् कामो दमयन्त्याः हृदि स्तन-रूपेण कठोरता फलदयं प्रहृतवानिति भावः // 42 / / ज्याकरण-अतिशरव्यथता शहः शरः (शरुः कोपे शरे वजे' इति हैमः ) तस्मै लच्छिक्षार्थमित्यर्थः हितम् इति शरु+यत् ( 'उगवादिभ्यो यत्' 5:1 / 2 ), शरव्यम्, अतिशयेन शरव्यमिति अतिशरव्यम् , अतिशरव्यं करोतोति ( नामधा० ) अतिशरव्य+पिच्+शत+तृ०। अनुवाद-उस ( दमयतन्ती) को खूब निशाना बनाते हुए, ( तथा ) अपने समी पुष्प-रूप बापों के समाप्त हो चुकने पर फलों से भी प्रहार करते हुए कामदेव ने ऐसा लगता था मानो उस ( दमयन्ती ) की छाती पर स्तनों के रूप में दो ताड़के फल मी मार दिए हों // 42 // टिप्पणी-हम देखते हैं कि जब बाण अथवा गोलियाँ खतम हो जाती हैं, तो लड़ाई में ईटपत्थरों से भी लोग काम लेते हैं। यही बात काम ने भी की। ताड़ वृक्ष के फल इसलिए लिये कि वे पत्थरों की तरह सख्त होते हैं, जो मार मो कर सकें दूसरे, जब सभी पुष्पो के साथ उनके फल मो मार दिए, तो फूलों के अभाव में उनमें फल आगे कहाँ से हाते हैं, इसलिए ताड़ के फल लिये, क्योंकि वे बिना फूलों के लगते हैं; तीसरे आकार में मी वे स्तनों की समता रखते हैं। स्तनों पर ताड़ पलों के आरोप से बनने वाले रूपक के साथ स्फुट-शब्दवाच्य उत्प्रेक्षा है / 'शरव्य' 'शरव्य' ये यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अथ मुहुबेहुनिन्दितचन्द्रमा स्तुतविधुन्तुदया च तया बहु / पति तया स्मरतापमये गदे निजगदेऽश्रुविमिश्रमुखी सखी // 43 // अन्वयः-अथ स्मरतापभये गदे पतितया ( अतएव ) मुहुः बहु-निन्दित-चन्द्रया, मुहुः स्तुतविधुन्तुदया च तया अश्र-विमिश्र-मुखी सखी निजगदे। __टीका-अथ अनन्तरम् स्मरस्य कामस्य तापः ज्वरः (10 तत्पु० ) एव तापमयः तस्मिन्