________________ 220 नैषधीयचरिते अनुवाद-सुन्दर दाँतों वाली वह ( दमयन्ती) मलयाचल की वायु को कामदेव द्वारा फेंका चायव्यास्त्र समझती हुई, उसके प्रबल ताप के मय से धारण किये हुए मृपाल दण्डों को सस्त्रिरूपमें--जैसे ले बैठती थी।॥ 40 // टिप्पणी-माव यह है कि मलयाचल की वायु के चलने से दमयन्ती का काम-ताप बढ़ जाता था। ठंडक के लिए वह मृणाल-दण्ड धारण कर लेती थी। इस पर कवि-कल्पना यह है कि मानो मलयाचल की वायु कामदेव का फेका वायव्यास्त्र हो और उसकी वायु को खा जाने हेतु दमयन्तो ने मृणालदण्ड के रूप में सास्त्र का प्रयोग किया हो, क्योंकि सर्प वायुभक्ष होते हैं। लंबाई और सफेदी साँप और मृणालों का समान धर्म है। इसलिए यह उत्प्रेक्षा है, किन्तु विद्याधर अपह्नति भी मान रहे हैं / अपहृव-वाचक शब्द यहाँ कोई है ही नहीं, आर्थ ही मानना पड़ेगा। हमारे विचार से मृपालिका में मयट् प्रत्यय स्वरूपार्थक होने से आरोप-परक लेना चाहिए, अतः यहाँ रूपक और उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकारों में 'यती' 'दतो' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'मय' 'मियं' में छेक और अन्यत्र वृत्यनुपास है। न्यधित तद्धदि शल्यमिव द्वयं विरहितां च तथापि च जीवितम् / किमथ तन्त्र निहत्य निखातवान् रतिपतिः स्तनबिल्वयुगेन तत् // 41 // अन्वयः-रतिपतिः तदि विरहिताम् च तथा अपि च जीवितम्--द्वयम् शल्यम् इव न्यधित / अथ तत् स्तन-बिल्व-युगेन निहत्य तत्र निखातवान् किम् ? ___टीका-रत्याः पतिः मर्ता काम इत्यर्थः (प०तरपु०) तस्याः दमयन्त्याः हृदि हृदये (प० तत्पु०) विरहिण्या भावम् विरहिताम् विरहमित्यर्थः च तथापि विरहित्वेऽपि च जीवितं प्रापधारणम्, विरहिण्या-जीवितम् जीवन्त्याश्च विरह इति द्वयम् शल्यं शंकुम् ( 'वापुंसि शल्यं शंकुर्ना' इत्यमरः) इव न्यधित स्थापितवान् / अथ शंकुद्वयनिधानानन्तरम् तत् शंकुद्वयम् स्तनौ कुचौ एव बिल्वे विल्वफळे ( कर्मधा० ) तयोः युगेन द्वयेन (प० तत्पु० ) निहत्य आहत्य तत्र तस्या हृदये निखातवान् दृढ़तया आरोपितवान् किम् ? यथा लोके शंकुम् पाषाणेन आहत्य दृढीकरणाय पाषाणमपि तत्रैव निखनन्ति तद्वदिति भावः // 41 / / व्याकरण-द्वयम् दौ अवयवावत्रेति द्वि+तयप् तयप को विकल्पसे अयच् / न्यधित नि+/ धा+ लुङ् / निखातवान् नि+Vखन्+क्तवत् / अनुवाद-कामदेव ने उस ( दमयन्ती ) के हृदय में विरह और विरहिणी होने पर भी जीवित रहना-ये दो खूटियों-जैसी गाद रखी थीं। खूटियों गाढ़ चुकने के बाद उनको कुचरूपो दो बिल्व फलों द्वारा खुब ठोककर ( उन्हें मी) उसके ( हृदय के ) ऊपर अच्छी तरह गाढ़ दिया है क्या ? // 46 / / टिप्पणी-पूर्वार्ध में विरह और जीवित पर शल्यों को कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है। उत्तरार्ध में कुचों पर बिल्वफलों का आरोप करके उनके गाढ़े जाने की कल्पना में रूपकोत्यापित उत्प्रेक्षा है। इव की तरह किम् शब्द मी उत्प्रेक्षा-वाचकों में गिना गया है। वैसे खूटियों पत्थरों से ठोको