________________ चतुर्थसर्गः 215 'पाण्डुता के व्याज से कामाग्नि-मग्न हुई' इस तरह अर्थ करें, तो अपहृति मी बन सकती है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। स्वदितरोऽपि' में अपि शन्द हृदा के साथ होना चाहिये था, न कि त्वदितरः के साथ, अतः अस्थानस्थपदता दोष बन रहा है। विरहतप्ततदङ्गनिवेशिता कमलिनी निमिषदल मुष्टिमिः / किमपनेतुमचेष्टत किं परामवितुमैहत तदव) पृथुम् // 32 // अन्धयः-विरह.."शिता कमलिनी निमिषद्-दल-मुष्टिमिः पृथुम् तद् दवथुम् अपनेतुम् अचेष्टत किम् ? ( अथवा ) परामवितुम् ऐहत किम् ? .. टीका-विरहेण वियोगेन तप्तम् तापप्राप्तम् ( तृ० तत्पु० ) यत् तदङ्गम् ( कर्मधा० ) तस्याः दमयन्त्या अङ्गम् शरीरम् ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् निवेशिता निहिता ( स० तत्पु०) कमलिनी पद्मलता निमिपन्ति संकुचन्ति यानि दलानि पत्राणि ( कर्मधा० ) एव मुष्टयः बद्ध-कराः ( कर्मधा० ) ताभिः पृथुम् विपुलम् तस्याः दमयन्त्याः दवथुम् तापम् अपनेतुम् दूरीकर्तुम् अचेत चेष्टां चक्रे किम् ? ( अथवा ) तम् पराभवितुम् तिरस्कर्तुम् ऐहत अचेष्टत किम् ? शैत्यार्थ स्वसंततशरीरे दमयन्त्या स्थापिता कमलिनी तद्दे हतापकारणात् म्लायन्ती कर-कल्पैः सवृत्तसंकुचितकमल: मुष्टि-बन्धैरिव तस्याः तापमपनेतुं चेष्टते स्मेवेति भावः // 32 // व्याकरण-निवेशिता नि-/विश्+णिच् क्त ( कर्मणि ) / कमलिनी कमलानि सन्त्यस्यामिति कमल+इन् +ङीप् / पृथुम् प्रथते इति /प्रथ+कुः ( कर्तरि ) सम्प्रसारण दवथुम् इसके लिए पीछे श्लोक 30 देखिए / अनुवाद-विरह से तपे उस ( दमयन्ती के शरीर पर रखी हुई कमल-लता सिकुड़ती हुई पंखुड़ियों-रूपी मुट्टियों से उस ( दमयन्ती) का महा-ताप भगाने के लिए चेष्टा कर रही थी क्या ? ( अथवा ) परास्त करने का प्रयत्न कर रही थी क्या ? // 32 // टिप्पणी-अत्यधिक ताप के कारण कमलनी और वृन्त में लगे कमल मी मुा जाते थे। इस पर कवि-कल्पना यह है कि कमलिनी जैसे कोई स्त्री हो और वह मुट्ठो-मुट्टियों से दमयन्ती के तापको भगाने की चेष्टा कर रही हो / नाल पर मुझाए कमल मुट्ठीबंधे कमलिनो के हाथ बने / किसी को मी मुट्ठी मार-मार कर लोग भगाते ही हैं। इस तरह उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'किम्' शब्द है। दलमुष्टिमिः रूपक है। लेकिन मल्लिनाथ का कहना है कि वस्तुतः कमलिनी कुछ भी न कर सकी, प्रत्युत स्वयं ही जल गई। गई थी दमयन्ती की सहायता करने स्वयं ही मार खा गई / इस तरह यहाँ विषमालङ्कार उत्प्रेक्षा के मूल में काम कर रहा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। इयमनङ्गशरावलिपन्नगक्षतविसारिवियोगविषावशा। शशिकलेव खरांशुकरार्दिता करुणनीरनिधौ निदधौ न कम् // 33 // अन्वयः-इयम् अनङ्ग "वशा ( सतो) खशुकरादिता शशिकला इव कम् करुपनीरनिधी न निदधौ ? टीका-इयम् दमयन्ती अनङ्गस्य कामस्य ये शराः बाणाः (10 तत्पु० ) तेषाम् भावलिः