________________ चतुर्थसर्गः 215 अभ्युदय अर्थात् और मो उत्कर्ष हो, तो ईर्ष्या में जलभुनकर मुख का अश्रुजल बहाना स्वाभाविक ही या। शब्दालंकर वृत्त्यनुपास है। रतिपतेर्विजयानमिषुर्यथा जयति भीमसुतापि तथैव सा। स्वविशिखानिव पञ्चतया ततो नियतमैहत योजयितुं स ताम् // 37 // अन्वयः-रतिपतेः इषुः यथा विजयास्त्रं जयति, तथा एव सा मीमसुता अपि ( विजयास्त्रं ) सती जयति, ततः स पश्चतया स्व-विशिखान् इव ताम् नियतम् पञ्चतया योजयितुम् ऐच्छत् / टीका-रत्याः पत्युः कामस्य ( 10 तत्पु० ) इषुः बाणः यथा येन प्रकारेण विजयाय सर्वपराभवाय अस्त्रम् श्रायुधम् (च. तत्पु० ) जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते तथा एव देनैव प्रकारेण सा प्रसिद्धा सुन्दरी भीमस्य सुता पुत्रो (10 तत्पु० ) दमयन्तीत्यर्थः विजयास्त्रं सती जयति, कामस्येषुरिव दमयन्त्यपि कामहस्ते जगत्-विजयसाधनमस्त्रमिति भावः, ततः तस्मात् कारणात् स कामः पश्चतया पंचसंख्यात्वेन स्वस्य आत्मनः विशिखान् बाणान् (10 तत्पु०) इव ताम् दमयन्तीम् नियतं नियमेन यथा स्यात्तथा पन्चतया मृत्युना ( 'पन्नता पञ्चमावःस्यात् पञ्चता मरणेऽपि च' इति विश्वः) योजयितुं सम्बद्धुम् ऐहत ऐच्छत् / कामस्य विजयास्त्रत्वं यथा इषो दमयन्त्यां च समानम् तथैव इषुगतं पञ्चत्वमपि समानरूपेण दमयन्त्यामपि भवितुमहंतीति कार्मच्छेति भावः // 37 / / ग्याकरण-अस्त्रम् अस्यते इति / अस्+ष्ट्रन् / इषुः इष्यते इति इष् +उः / पञ्चता पञ्चानां पञ्चसंख्यायाः मावः इति, अथ च पश्चानाम् पृथिव्यप्तेजो-वावाकाशरूपापां भूतानां माव इति पञ्च+तल्+टाप् / अनुवाद काम का बाण जैसे विजयास्त्ररूप में सर्वोत्कृष्ट है, वैसे ही वह दमयन्ती ( मो) (काम के ) विजयास्त्र-रूप में सर्वोत्कृष्ट है, तभी तो वह (कामदेव ) अपने बाणों को पन्नता ( पाँच की संख्या ) की तरह उस ( दमयन्ती) में भी निश्चय ही पश्चता ( मृत्यु ) जोड़ना चाह रहा था // 37 // टिप्पणी-यहाँ मल्लिनाथ ने उपमा और उत्प्रेक्षा का संकर कहा है। कवि को यह कल्पना है कि मानो काम दोनों में विजयास्त्रत्व की तरह पञ्चता मी समान रूप से देखना चाह रहा था। पश्चता में श्लेष है। किन्तु हमारे विचार से उत्प्रेक्षा-वाचक के अभाव में उपमा और अतिशयोक्ति का संकर है। बाषों की पञ्चता और है और दमयन्ती की पञ्चता और है। दोनों में कवि ने अमेदाध्यवसाय कर रखा है, जो श्लेषानुप्राषित है। भाव यह निकला कि काम असा वेदना उत्पन्न करके दमयन्ती को मारना चाहता था, अर्थात् दमयन्ती काम को दशवीं-मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुकी थी। शशिमयं दहनास्त्रमुदित्वरं मनसिजस्य विमश्य वियोगिनी / झटिति वारुणमश्रुमिषादसौ तदुचितं प्रतिशस्त्रमुपाददे // 38 //