________________ चतुर्थसर्गः 205 ने यह कल्पना की कि मानो वह अपने पर भी प्रहार कर बैठा है। यहाँ 'अमूच्र्छत्' शब्द में बना चमत्कार है / इसका ( मूछित-बेहोश ) होने के अतिरिक्त दूसरा अर्थ 'वृद्धि को प्राप्त हो गया' भी है ( 'मूर्छा मोह-समुच्छाययोः सि० को)। वास्तव में आशय यह है कि कामदेव के बाप प्रहार से दमयन्ती के हृदय में नलविषयक काम और बढ़ गया। मुर्छा के समुच्छाय (वृद्धि) और मोह-इन दोनों अर्थों के भिन्न-भिन्न होने पर भी कवि ने श्लेषमुखेन उनका अमेदाध्यवसाय कर दिया है, इसलिए यहाँ मेदे अमेदातिशयोक्तिमूलक उत्प्रेक्षा है। मल्लिनाथ ने यहाँ 'गए थे दसरे पर प्रहार करने, स्वयं पर मो प्रहार कर बैठे' इस रूप में विषमालंकारभी माना है। शम्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। विधुरमानि तया यदि मानुमान् कथमहो स तु तदयं तथा / अपि वियोगमरास्फुटनस्फुटीकृतदृषत्त्वमजिज्वलदंशुमिः // 20 // अन्वयः-तया विधुः यदि मानुमान् अमानि, तु सः वियोगदृषत्त्वम् अपि तद्-हृदयम् अंशुभिः कथं तथा अजिज्वलत् / टीका-तया दमयन्त्या विधुः चन्द्रः यदि भानुमान् सूर्यः श्रमानि मानितः विरहकारणात् आत्मानं दहन्तं चन्द्रं दमयन्ती 'सूर्योऽयम्' इति मानितवतीत्यर्थः तु तहिं स मानितः सूर्यो न तु वास्तविकः वियोगस्य नल-विरहस्य यो भरः भारः बाहुल्यमित्यर्थः (10 तत्पु० ) तेन यत् प्रस्फुटनम् अविदरणम् ( तृ० तरपु०) तेन स्फुटीकृतम् स्पष्टीकृतम् ( तृ. तत्पु० ) दृषत्त्वं पाषाणत्वं (कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० वी० ) अपि तस्या दमयन्त्या हृदयम् हृत् अंशुभिः किरणः कथम् केन प्रकारेण तथा तादृशप्रकारेण अजिज्वलत् ज्वालयामास / चन्द्रसूर्यस्यारोपितत्वात अतात्विक-सूर्यस्य स्वकिरयः दमयन्त्याः सूर्योपल-रूपहृदय-ज्वालकत्वमाश्चर्यकरमिति मावः / / 20 / / __व्याकरण-भानुमान् मानवः किरणाः अस्य सन्तीति (मानू रश्मि-दिवाकरौ' इत्यमरः) मानु+मनप् / प्रमानि मन् + लङ् ( कर्मणि)। अजिज्वलत्/ज्वल्+पिच+लङ्।। अनवाद-उस ( दमयन्ती ) ने चन्द्रमा को यदि सूर्य माना, तो फिर वह ( कल्पित सूर्य ) वियोग के भार से विदार्ण न होने के कारण ( अपना ) प्रस्तरस्व दिखाये हुए उस ( दमयन्ती) के हृदय को क्यों उस प्रकार जलाता था ? टिप्पणी-दमयन्ती चन्द्रमा को सूर्य मान बैठी थी, लेकिन श्लोक में इसका कारण नहीं बताया गया है, इसलिए चाण्डू पण्डित कारण बताने के लिए श्लोक में 'बिधुरमानितया' को एक शब्द के रूप में द्विरावृत्त करते हुए इस प्रकार पहला अर्थ करते हैं-विधुरा वियोगदुःखिताम् आत्मानं मन्यते इति विधुरमानिनी तस्या मावः तत्ता तया" = वियोग के कारण अपने को दुःखिनी मानने से वियोग में विरहि-जन को चन्द्रमा इस तरह जलाता रहता है / जैसे सूर्य लेकिन माना हुआ सूर्य तात्विक नहीं हो सकता है, इसलिए बड़े आश्चर्य की बात है कि वह अपने को स्पष्ट सूर्योपल सिद्ध किये हुए दमयन्ती के हृदय को कैसे जला पाया। सूर्योपल तात्त्विक सूर्य की किरणों से ही जलता है, चन्द्रमा की किरणों से नहीं। भावार्थ यह निकला कि विरहिणी होने के कारण दमयन्ती चन्द्र--