________________ द्वितीयसर्गः व्याकरण-प्रतिहटटपथे अव्ययीभाव समास होने पर भी प्रतिहट्टपथम् के स्थान में 'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्' (2484) से विकल्प से सप्तमी। पथिकः पथि गच्छतोति पथिन्+कन् / सौरमम् सुरमेः माव इति सुरमि+अण् / अनुवाद-बाजारों की गली गली में बटोहियों को ( भोजनार्थ) आमन्त्रण देने वालो सत्तुओं को सुगन्धों के कारण घराटों के कारण जिस ( नगरी में हुए ( मेघों के) कलह का घर्षर शब्द आन तक भी मेवों को नहीं छोड़ रहा है // 85 // टिप्पणी-मेघों की गड़गड़ाहट स्वामाविक ही होती है किन्तु कवि-कल्पना यह है कि उनका कुण्डिन नगरी के घराटों के साथ पथिकों का अपनी-अपनी ओर खींचने के प्रश्न पर झगड़ा-जैसा हो उठा था जिसके कारण मेष आज भी गड़गड़ाहट नहीं छोड़ रहे हैं। यह उत्प्रेक्षा है, किन्तु वाचक शब्द के न होने से वह यहाँ प्रतीयमान नहीं है। उसके मल में झगड़े का सम्बन्ध न होने पर मी सम्बन्ध बताना-यह असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। वरणः कनकस्य मानिनी दिवमङ्कादमरादिरागताम् / धनरत्नकवाटपक्षतिः परिरभ्यानुनयन्नुवास याम् // 86 // अन्वयः-कनकस्य वरणः अमरादिः याम् ( नगरोम् ) मानिनीम् ( अतएव ) अङ्कात् आगताम् दिवम् घन-रत्नकवाट-पक्षतिः सम् परिरभ्य अनुनयन् उवास। टीका-कनकस्य सुवर्षस्य वरणः प्राकारः / 'प्राकारो वरणः शालः' इत्यमरः ) सुवर्णमयपाकार इत्यर्थः एव अमराणां देवानाम् अद्रिः पर्वतः (10 तत्पु०) सुमेरुपर्वतः देवता हि सुमेरौ निवसन्ति, बाम् कुण्डिननगरीम् मानिनी प्रणय-कुपिताम् अत एव अकात् निजकोडात् आगताम् सुमेरो: क्रोडमु. ज्झित्वा भूतले समायातामित्यर्थः दिवम् अमरावती घने निबिड़े रत्न-कवाटे ( कर्मधा० ) रत्नानां कवाटे कपाटे ( 10 तत्पु० ) रत्नमय कपाटे इत्यर्थः एव पक्षती पक्षमूले ( कर्मधा०) यस्य तथाभूतः (ब० बी०) सन् परिरभ्य समालिङ्गय अनुनयन् ता प्रसादयन् उवास तस्थौ। कुण्डिननगरी अमरावतीरूपा मानिनी नायिकास्ति या कुपिता भूत्वा भुवि पलायिता, सुवर्णप्राकारश्च सुमेरुरूपो नायकोऽस्ति यो रत्नमयकपाटरूपपक्षाभ्याम् आश्लिष्य ता प्रसादयन् तयैव सह भुवि वसतीति मावः // 86 // व्याकरण-करणः वृणोतीति वृ+ल्युट् ( कर्तरि ) / पचतिः पक्षस्य मूलमिति पक्ष+तिः। भनुवाद-स्वर्णमय प्राकार-रूपी सुमेरु पर्वतकी गोद से ( खिसक कर भू-लोक ) आई हुई जिस कुण्डिननगरी रूपी अमरावती मानिनी ( नायिका ) को रत्नमय कपाटरूपी डैनों द्वारा आलिंगन करके मनाता हुमा (भू-लोक में ही ) टिक गया है // 86 // टिप्पणी-यहाँ सुवर्षमय प्राकार पर सुवर्णमय सुमेरुवारोप, कुण्डिनपुरी पर अमरावतीत्वारोप ओर बहिार के रत्नमय कपाटों पर पक्षतित्वारोप होने से यह साङ्ग रूपक है। उसका सुमेरु और अमरावती पर नायक-नायिका व्यवहारसमारोप के कारण समासोक्ति के साथ संकर है। उदात्तालंकार चला ही आ रहा है। शन्दालंकार वृत्त्यनुपास है।