________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-मास्वान् माः अस्मिन्नस्तीति भास्+मतुप् , म को व / प्रमिप्रयाता-अमि+ प्र+ या+तृच् ( कर्तरि ) / अनुवाद-( सखियों को रोक देने के ) बाद उनकी हँसी पर कुछ झुझलाई हंस ( मराल ) को कर ( हाथ ) से न पकड़ सकने के कारण मन्दाक्ष-लक्ष्य ( लज्जित दिखाई दे रही ) श्यामा ( युवती दमयन्ती) हंस के पीछे-पीछे इस प्रकार लग गई जैसे हंस ( सूर्य ) के करों ( किरणों ) को प्राप्त न करने के कारण मन्दाक्ष-लक्ष्य ( मन्द दृष्टि वालों को दिखाई पड़ने वालो) श्यामा (काली) छाया सूर्य के सामने जाने वाले पुरुष के पीछे-पीछ लगती है // 8 // टिप्पणी-छाया-जब हमारे शरीर से सूर्य की किरणें रुक जाती हैं तो यह किरणावरोध ही छाया बनती है। मन्द दृष्टि वालों अथवा दुखती आँखों वालों को छाया तो दीख जाती है, किन्तु चुधियाने के कारण तेज धूप को वे नहीं देख सकते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर कवि वाक्छल द्वारा छाया से दमयन्ती की तुलना कर रहा है। इसीलिए यहाँ उपमा है और वह भो श्लेष-गभित / छाया श्यामा ( काली ) होती है: दमयन्ती भी श्यामा ( यौवनस्थ ) है। छाया 'हंस को करानवाप्ति से मन्दाक्ष लक्ष्य है, दमयन्ती मी 'हंस को करानवाप्ति से मन्दाक्ष-लक्ष्य है' छाया भी पीछे लगती है; दमयन्ती मो पीछ लग रही है। श्लेष कहीं सभंग है, कहीं अभंग। कोप और लज्जा के संमिश्रण से भाव-शबलता अलंकार मो है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। शस्ता न हंसामिमुखी तवेयं यात्रेति तामिश्छलहास्यमाना / साह स्म नैवाशकुनीमवेन्मे माविप्रियावेदक एष हंसः // 9 // अन्वयः-“(हे दमयन्ति, ) तव इयम् हंसाभिमुखी यात्रा न शस्ता" इति ताभिः छलहस्यमाना ( सती ) सा आह स्म-"माविप्रियावेदकः एष हंसः मे न एव अशकुनोमवेत्" / टीका-(हे दमयन्ति ) तव ते इयम् एषा हंसस्य मरालस्य अथ च सूर्यस्य अभिमुखी संमुखी (10 तत्पु० ) ( रवि-श्वेतच्छदौ हंसः' इत्यमरः ) यात्रा प्रयापं न शस्ता प्रशस्ता शुमेत्यर्थः, संमुखस्थे हंसे ( सूर्य ) ज्योतिश्शास्त्रानुसारेण यात्रायाः प्रतिषेधात् , अत एवाशकुनीभूत्वात् इति एवं तामिः सखीमिः छलेन वाक्छलेन अर्थद्वयवाचकशब्दप्रयोगेणेत्यर्थः हस्यमाना परिहासं प्राप्यमाणा सती सा दमदन्तो माह स्म अवोचव-( "मो आलयः, ) मावि भविष्यत्कालीनं यत् प्रियं शुभमित्यर्थः ( कर्मधा० ) तस्य आवेदकः सूचकः ( 10 तत्पु० ) एष हंसः पक्षि-रूपो ( न तु सूर्य-रूमः ) नैव अशकुनोमवेत् अशुभकारकोऽथ चापक्षिरूपो भवेत्" / असौ सूर्यरूपो हंसः यात्रायां सम्मुखस्थः काममशकुनीभवेत् किन्तु अयं हंसः शकुनीभूतोऽस्ति / यात्रायां पक्षिरूपहं से सम्मुखे समागते शुभमेव भवति, ना ममिति मावः / / 6 // __ व्याकरण-अभिमुखी मुखम् अभिगना इति अमि+मुख+की / शस्ता- शंस्+क्तः (कर्मणि ) / प्रावेदक: आ+/विद्+ण्वुल् वु को अक। भशकुनीमवेत अशकुन+च्चि दीर्घ + Vभू+वि० लिङ् / अनुवाद-(“दमयन्ती!) तुम्हारी यह हंस (सूर्य) के संमुख यात्रा ( शास्त्रानुसार ) प्रशस्त