________________ तृतीयसर्गा 115. टीका-अथ अनन्तस्म् तथा सेन प्रकारेष अमिधात्रीम् कषयन्तीम् वाम् राजपुरी राजकुमारी भैमी नैषधे नले बद्धः आसंजितः ( स० तरपु० ) रागः प्रीतिः (कर्मधा) यया तथाभूताम् (ब० वी०) अनुरक्तां निणीयं निश्चित्य तेन विहायता पक्षिषा हंसेन (विहंगम-विहायसः' इत्यमरः) विहस्य हसिस्वा मूयः पुनः चन्चूपुटस्य त्रोटिपुटस्य मौनस्य-तूष्णोम्भावस्य मुदा नियन्त्रणा (10 सत्पु०) अमोचि त्यक्ता, उक्तमित्यर्थः। व्याकरण-अमिधात्रीम् अभि+Vधा+तृच् ( कर्तरि )+डी / मौनम् मुने भाव इति मुनि+मण / अमोचिमुच्+लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-इसके बाद उस तरह कहती हुई उस राजकुमारी ( दमयन्ती ) को नल पर रागासक्त हुई निश्चित करके उस पक्षी ( हंस ) ने हँसकर फिर चोंच को मौन मुदा खोल दो // 99 // रिपणी-'विहायसा' 'विहस्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनु गस है। विहस्य-हँसना केवलमात्र मनुष्यजाति का धर्म है। पशु-पक्षो नहीं हँसा करते, इसलिए कवि का हंस को 'विहस्य' कहना प्रकृति-विरुद्धता दोष के अन्तर्गत आता है। यदि देवतांश होने के कारण मनुष्य-वाणी में बोलने को तरह मनुष्यों को तरह हँसना मान लिया जाय तो बात दूसरी है। इदं यदि क्षमापतिपुत्रि तत्वं पश्यामि तन्न स्वविधेयमस्मिन् / स्वामुच्चकैस्तापयता नृपं च पन्चेषुणवाजनि योजनेयम् // 10 // अन्वयः-हे मापतिपुत्रि ! यदि इदम् तत्त्वम् (अस्ति), तत् अस्मिन् स्व-विधेयं न पश्यामि त्वाम् नृपम् च उच्चकैः तापयना पञ्चेषुणा एव इयम् योजना अजनि। टीका-मायाः पृथिव्याः पतिः स्वामी मीमः तस्याः पुत्री कन्या तत्सम्बुद्धौ ( उभयत्र प. तत्पु०) हे भैमि, यदि चेत् इदम् स्वदुक्तं तत्वं सत्यमस्ति, तत् तर्हि अस्मिन् कायें तव नलेन सह सम्बन्वे इत्यर्थः स्वं स्वकीयं विधेयं करणीयम् ( कर्मधा० ) अहं न पश्यामि विलोकये / साम् नृपं नलं च उच्चकैः भृशं यथा स्यात्तथा तापयता तापं प्रापयता पञ्च इषवो बाणाः यस्य तथाभन ( ब० वी०) कामदेवनेत्यर्थः एव इय योजना घटना अजनि जनिता मम प्रयत्नस्य नास्त्यत्रावश्यकता, कामेनैव युवयोरेष सम्बन्धः सम्पादित इति मावः // 10 // व्याकरण-विधेयम् विधातुं योग्यमिति वि+vधा+यत् / इन्चकैः उच्चैः पवेति उच्चैः+ कः ( स्वाथे) ! योजना युज्+णिच् +युच् +टाप्। अजनि जन्+पिच+ङ् / अनुवाद-हे राजकुमारी! यदि यह बात ( जो तुमने कही) सच्ची है, तो इस विषय में मुझे अपने द्वारा करने योग्य ( कुछ ) नहीं दीखता / तुम्हें और राजा ( नल) को खूब तराते हुए कामदेव ने हो यह योजना बनाई है // 100 // ____ शिप्पणी-पश्चेषुणा-कामदेव जिन पाँच फूलों को बाण के रूप में प्रयोग में लाता है, वे यह है-'अरविन्दमशोकं च चूतश्च नवमल्लिका / नीलोत्पलं च पञ्चते रुञ्चबापस्व सायका / वहाँ विवायर का कहना है कि 'योजना अजनि' में योजना-रूप कार्य अतीत में हो रहा है और 'तापयता' वर्तमानकारिक कारण बाद में हो रहा है, इस तरह कार्यकारष-पौर्वापर्य-विपर्यय-रूपा अतिशयोक्ति है। 'पति' 'पत्रि' 'ननि' 'जने' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।