________________ 19. नैषधीयचरिते अतितमा समपादि जडाशयं स्मितलवस्मरणेऽपि तदाननम् / अजनि पङ्गुरपाङ्गनिजाङ्गणभ्रमिकणेऽपि तदीक्षणखानः // 4 // अन्वयः-तदाननम् स्मिव-कव-स्मरणे अपि अतितमाम् जडाशयम् समपादि / तदीक्षप-खजनः अपाङ्ग' 'कणे अपि पङ्गुः अननि / टीका-तस्या दमयन्त्या माननं मुखम् (प० तत्पु० ) स्मितस्य मन्दहास्यस्य खवस्थ देशस्य स्मरणे स्मृतिविषये अपि ( उमयत्र प० तत्पु० ) अतितमाम् अत्यन्तं जडो मन्द भाशयोऽमिप्रायो यस्य तथाभूतम् (ब०वी०) निश्चेष्टीभूतमित्यर्थः समपादि जातम् अर्थात् कामज्वराक्रान्ता दमयन्ती स्वमुखे स्मितलेशमपि नाचिन्तयत् किं पुनः तत् करपम् तस्या दमयन्त्या ईचणं नयनम् (10 तत्पु० ) एव खञ्जनः पक्षिविशेष: अपाङ्गो नेत्रप्रान्त एव निजम् अङ्गणं प्राङ्गणम् ( उमयत्र (कर्मधा० ) तस्मिन् भ्रमिकणे ( स० तरपु०) भ्रमेः भ्रमणस्य कणे लेशे (10 तत्पु० ) अपि पङ्गुः खलः असमर्थ इति यावत् अजनि जातः कामज्वरकारणात् तयाऽपाणावलोकनमपि परित्यत्तमिति मावः // 4 // व्याकरण-स्मितम् /स्मि+क्तः ( मावे ) / अतितमाम् अति एवेति अति+तमप् ( स्वाथें ) +आम्। समपादि सम् +/पद्+लुङ् चिण ( कर्तरि ) ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति / + ल्युट् ( करणे ) / मजनि /जन्+लुङ् चिण ( कर्तरि ) / अनुवाद-उस ( दमयन्ती ) का चेहरा थोड़ी-सी मुस्कान याद करने में मो जड़-चित्त-संशाहीन हो बैठा / उसका नयनरूपी खजरीट पक्षी अपनी कनखी-रूपी आँगन में थोड़ा-सा घूमने-फिरने में भी लूला-लंगड़ा हो गया // 4 // टिप्पणो कामज्वर ने अपनी प्रतिक्रिया दमयन्ती में यह दिखाई कि वह मुस्कराना तक भल बैठी और कनखियों से देखना तक छोड़ बेठी। यों तो अपने आंगन में सुगमता से दो-चार पग समो घूम ही सकते हैं, लेकिन उस बेचारी का नयन-रूपी खञ्जन उससे मी रह गया। दृष्टिपात मात्र से खजयति = पंगुकरोति लोगों को लूला बना देने वाला उसका नयन खजन आज स्वयं लूला बन गया है-कितनी हैरानी की बात है। यहाँ आनन का चेतनीकरण होने से समासोक्ति है, ईक्षण पर खंजनत्व और अपाङ्ग पर प्राङ्गणत्व का आरोप होने से रूपक है जो परस्पर कार्यकारण माव होने से परम्परित है, 'स्मरणेऽपि', 'भ्रमिकणेऽपि' में अपि शब्द से कैमुतिक न्याय से अन्य का तो कहना ही क्या है-यह अर्थ आपन्न होने से अर्यापत्ति है; इस तरह इन सबकी यहाँ संसष्टि समझिए / किन्तु विद्याधर ने 'अत्र विशेषोक्तिः, रूपकं च' कहा है। विशेषोक्ति सम्भवतः इस रूप में होगो कि घूमने का हेतु आँगन सुगम होने पर भी घूमना कार्य नहीं हो रहा है। शब्दालंकारों में 'पङ्गु 'पाङ्ग' में छेक-और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। किमु तदन्तरुमौ मिषजौ दिवः स्मरनलौ विशतः स्म विगाहितुम् / तदमिकेन चिकित्सितुमाशु तां मखभुजामधिपेन नियोजितौ // 5 //