________________ नैषधीयचरिते ध्याकरण-निःश्वसितम् निस् +Vश्वस्+क्तः (भावे ) / गन्धवहः वहतीति बह+ अच् ( कर्तरि ) गन्धस्य वहः गन्धवहः। उदञ्चयितुम् उत्+म+णिच्+तुमुन् / मायिता मायाऽस्यास्तोति माया+इन् (बीद्यादिभ्यश्च 5 / 1 / 116 )+तल+टाप् / अकलि- कल् + लुङ् ( कर्माण ) / अनुवाद-मृगनयनी ( दमयन्ती के निकल रहे ( गर्म 2) निःश्वास-रूपी वायु से अनुमान किया जा रहा था कि उसने हृदय में ( स्थित अपने ) मित्र काम रूपी अग्नि को भड़काने हेतु धोखे से छिपा-छिपा प्रवेश कर रखा था, (और अब खुल्लम-खुल्ला बाहर निकल रहा है ) // 14 // टिप्पणी-दमयन्ती की गरम-गरम आहों से कल्पना की जा रही थी कि उसके शरीर के भीतर सहायता देने हेतु अपने मित्र अग्नि के पास छिपकर वायु ने प्रवेश कर रहा था। आह रूप में जब वह मुख से बाहर आया, तभी इसका अनुमान हुआ। कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है जो वाचक पद के न होने से प्रतीयमान ही है, वाच्य नहीं। उसके साथ वायु और अग्नि में चेतनव्यवहार समारोप होने से समासोक्ति का संकर है। मित्र की सहायता हेतु कोई भी व्यक्ति छिपकर उसके पास जाता ही है / वायु और अग्नि को मित्रता के लिए देखिए अमरकोष-'रोहिताश्वो वायु-सखः' / वायु, पवन आदि शब्द न कहकर 'गन्धवह' कहना सामिप्राय है। इससे दमयन्ती का पमिनीत्व व्यक्त होता है। पद्मिनी के मुख से ही सुगन्धित वायु निकला करती है। अतः विशेष्य के सामिप्राय होने से कुवलयानन्द के अनुसार परिकराङ्कुर प्रलंकार है / 'मृगोदृशः' में लुप्तोपमा एवं काम पर अग्निस्वारोप में रूपक है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। यहां चिन्ता संचारी भाव का अनुमाव गरम-गरम आहों के रूप में व्यक्त किया गया है। विरहपाण्डिमरागतमोमषीशितिमतन्निजपीतिमवर्णकैः / दश दिशः खलु तद्दगकल्पयल्लिपिकरी नलरूपकचित्रिताः // 15 // अन्वयः-तद्-दृग लिपिकरी विरह"वर्णकैः दश दिश: नलरूपकचित्रिताः अकल्पयत् खलु / टीका-वस्या दमयन्त्या दृग् दृष्टिः ( 10 तत्पु० ) एव लिपिकरी चित्रकारिणी विरहः वियोगः तेन यः पाण्डिमा श्वत्यम् (तृ० तत्पु० ) च रागः प्रेम एव रागः लौहित्यं च, तमः मोहो मूच्छेति यावत् एव मषी स्याहीति भावायां प्रसिद्धा ( कर्मधा० ) तस्याः शितिमा श्यामता ( 10 तत्पु० ) च तस्याः दमयन्त्या निजपीतिमा (ष० तत्पु० ) निजः पीतिमा सौवर्णवर्णः ( कर्मधा० ) च ( चतुणां वर्षानामत्र द्वन्द्वो योज्यः ) ते एव वर्णाः एव वर्णका रंगाः तैः ( कर्मधा० ) साधनभूतैः दश दिशाः नलस्य रूपकाणि प्रतिकृतयः (10 तत्पु० ) तैः चित्रिताः सजातचित्राः चित्रयुक्ता इति यावत् ( तृ० तत्पु० ) प्रकल्पयत् भर चयत् खलु / चिन्ताकार पात् भ्रान्स्या दमयन्तो तत्र-तत्र सर्वत्र नलमेव पश्यति स्मेति भावः / / 15 / / ब्याकरण-लिपिकरी लिपि (चित्रम् ) करातीति लिपि+/+ट:+कोप् / पाण्डिमा पाण्डोः भाव इति पाण्डु+इमनिच् / शितिमा शितेर्भाव इति शिति+इमनिच / इसी तरह पोतिमा। वर्णकाः वर्ण एवेति वर्ण+कः ( स्वाथे)। चित्रिताः चित्राणि आसा सम्जातानीति चित्र+इतन् /