________________ चतुर्थसर्गः 195 अपराधम् आगः निबिडं पीनं कुच-द्वयम् ( कर्मधा० ) कुचयोः द्वयम् स्तनयुगलम् (प० तत्पु०) तेन यन्त्रणा तत्कृतबन्धनमित्यर्थः ( तृ. तत्पु० ) प्रतिबध्नती प्रतिबन्धं कुर्वती निरुन्धतीति यावत् सती अधात् दधौ / दमयन्त्याः कठिनकुचौ चेत् निरोधं नाकरिष्यताम् ; तहिं तस्या हृदयं कामतापेन स्फुटित्वा बहिरागमिष्यदिति भावः // 10 // व्याकरण-उदपाति उत्+पत्+लुङ् ( भाववाच्य ) / निबिड-पीन-कुचद्वय०-यहाँ अल्पाच् होने के कारण पीन शब्द को पहले आना चाहिए था, निबिड शब्द को पीछे। इसका समाधान यहाँ यही हो सकता है कि 'पीन' का कुचद्वय के साथ हम पहले समास कर लें अर्थात् पीनं च तत् कुचद्वयम् = पीनकुचद्वयम् , अब 'निविड़' शब्द के साथ निबिडच्च तत् पीनकुचद्वयम् यों समास करें। यन्त्रणा-Vयन्त्र+युच्+टाप् / प्रतिबन्नती-प्रति+Vबन्ध+शत+ठीप् / अधात धा+लुङ्। अनुवाद-दमयन्ती का हृदय काम-ज्वर की प्रतिशयता से फरकर जो ऊपर नहीं आ पड़ा, वह अपराध ( उसके ) परस्पर सटे हुए, मांसल कुच-युगल द्वारा किये बन्धन ( दवाव ) का था, जो रुकावट डाल रहा था।। 10 // टिप्पणी-कपड़े-जैसे किसी भी वस्तु के ऊपर यदि पत्थर-जैसी कोई कठोर चीज रख दी जाय, तो कपड़ा ऊपर उड़ जाने से रह जाता है। यही काम दमयन्ती के कठिन कुचों ने किथा, जो अपने नीचे उसके हृदय को दबाए रखे हुए थे। फटकर ऊपर न आ जाने का अपराध हृदय का नहीं बल्कि स्तनों का है / यह कवि की कल्पना हो समझो, इसलिए उत्प्रेक्षा है, जो वाचक पद न होने से गम्य ही है। लेकिन विद्याधर ने अतिशयोक्ति मान रखी है, क्योंकि यन्त्रणा का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। निविशते यदि शूकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यथाम् / मृदुतनोतिनोतु कथं न तामवनिभृत्त निविश्य हृदि स्थितः // 11 // भन्वय-शूक-शिखा पदे यदि निविशते, (तहि ) सा कियतीम् इव व्यथाम् न सृजति; अवनिभृत् तु मृदु तनोः हृदि स्थितः सन् ताम् कथम् न वितनोतु ? ___टीका-शूकः यवादि-धान्यानां मृदुकण्टकाग्रम् ( 'शूकोऽस्त्री इलक्ष्यतीक्ष्णाग्रे इत्यमरः ) तस्य शिखा कोटिः पदे चरणे यदि चेत् निविशते प्रवेशं करोति, (तहिं ) सा शिखा कियतीम् कियदधिकाम् इवेति वाक्यालङ्कारे व्यथाम् पीडाम् न सृजति जनयति अपितु महतीमेव पीडां जनयतीति काकुः / तु पुनः अवनि पृथिवीम् विमति धारयतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) राजा नला, अथ च पर्वतः मृदुः कोमला तनुः शरीरम् (कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूतायाः दमयन्त्या इत्यर्थः (ब० वी० ) हृदि हृदये स्थितः प्रविष्टः सन् ताम् पीडाम् न वितनोतु जनयतु 1 अपि तु वितनोतु एवेति काकुः / हृदये दत्तस्थानं नलं सततं ध्यायन्या दमयन्त्या महती व्यथा बभूवेति भावः // 11 // म्याकरण-शूकः श्वयतीति /श्वि+कक् , सम्प्रसारण / निविशते नि+/विश्+लट् 'नेविंशः' 1 / 3 / 17 से आत्मनेपद / ग्यथा व्यथ + अ ( मावे )+टाप् / अवनिभृत् भवनि+ /भृञ्+विप् ( कर्तरि ) / मृदु म्रद् कु, सम्प्रसारण /