________________ 194 नैषधीयचरिते बिम्बप्रतिबिम्बमाव' होने से निदर्शना है, जो प्रतीप को साथ रखे हुए है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति मानो है क्योंकि 'यदि' शब्द के बल से यहाँ कदली के साथ 'मरुज्वलद्धरदूषित्त्वे का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध की कल्पना को गई है। चारित्रवर्धन का भी यही मत है। शब्दालंकारों में 'कदन' 'कदलो' और 'दूषर' 'दूषित' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / 'ऊष्मणि मज्जितम्' में 'वह्निना सिन्चति' की तरह वाक्यत्वापादक तत्त्व 'योग्यता' का अभाव अखर रहा है। लक्षण ही शरण है। स्मरशराहतिनिर्मितसंज्वरं करयुगं हसति स्म दमस्वसुः। अनपिधानपतत्तपनातपं तपनिपीतसरस्सरसीरुहम् // 9 // अन्वय-स्मर.."ज्वरम, दमस्वसुः कर-युगम् अनपि...तपम् तप.. रुहम् हसति स्म / टीका-स्मरस्य कामस्य ये शरा बाप्पाः ( तेषाम् पाहत्या आघातेन ) ( प०तत्सु० ) निर्मितः जनितः ( तृ० तत्पु०) संज्वरः संतापः ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी० ) दमस्वसुः दमयन्त्याः करयोः हस्तयोः युगं द्वयम् ( 10 तत्पु० ) न अपिधानं व्यवधानं प्रतिबन्ध इति यावत् यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( नञ् ब० वी०) पतन् तपनातपः ( कर्मधा०) तपनस्य सूर्यस्य आतपः धर्मः यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) तपेन ग्रीष्मेण ('ऊष्मागमस्तपः' इत्यमरः) निपीतम् शोषितम् ( तृ० तरपु० ) यत् सरः सरोवरः ( कर्मधा० ) तस्मिन् ( विद्यमानम् ) सरसीरुहम् ( स० तत्पु 0 ) हसतिस्म उपहासास्पदीकरोति स्म तत्सदृशमासीदिति भावः // 9 // व्याकरण-आहतिः आ+ हन्+क्तिन् ( मावे ) / अपिधानम् अपि+/धा+ल्युट ( मावे ) / तपः तपतीति तप् +अच् (कर्तरि ) / सरसीरुहम् सरस्यां रोहतोति सरसो+ /रुह् +कः ( कर्तरि ) / अनुवाद-काम के बाणों के प्रहार से उत्पन्न किये हुए ताप वाले दमयन्ती के दोनों हाथ उस कमल की हँसो कर रहे थे, जिसका ( आधार-भूत ) तालाव ग्रीष्म ने सुखा दिया हो और जिसके ऊपर बिना रुकावट सूर्य की धूप पड़ रही हो।। 9 // टिप्पणी-दमयन्ती के हाथ उस तरह काम का ताप सह रहे थे जैसे गर्मियों में सूखे पड़े तालाव का कमल सूर्य का ताप सहा करता है। दण्डी ने हँसी करना ईर्ष्या करना', 'टक्कर लेना', 'लोहा लेना' आदि लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में पर्यवसान माना है, अतः तदनुसार उपमालंकार है। 'सरस्सरसी' में छेक है। 'तप' को एक से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास ही होगा। मदनतापमरेण विदीर्य नो यदुदपाति हृदा दमनस्वसुः / निबिडपीनकुचद्वययन्त्रणा तमपराधमधात्प्रतिबध्नती // 10 // भन्वयः- दमनस्वसुः हृदा मदन-ताप मरेण त्रिदीर्य यत् न उदपाति, तम् अपराधम् निबिड.. यन्त्रणा प्रतिवध्नती सती अधात् / टीका-दमनस्वसुः दमयन्त्या हृदा हृदयेन मदनस्य कामस्य तापस्य ज्वरस्य मरेख भतिशयेन ( उभयत्र प० तत्पु०) विदीय स्फुटित्वा यत् न उदपाति उत्पतितम् , तम् अनुस्पतनरूपम्