________________ 16. नैषधीयचरिते त्वबद्धबुद्धेहिरिन्द्रियाणां तस्योपवासिवतिना तपोमिः / स्वामय लब्ध्वामृततृप्तिमानां स्वं देवभूयं चरितार्थमस्तु // 101 // अन्वयः-(हे भैमि ) स्वद्-बद्ध-बुद्धेः तस्य उपवास-वतिनाम् तपोभिः अद्य त्वां लब्ध्वा अमृततृप्ति-माजाम् बहिरिन्द्रियाणाम् स्वं देवभूयम् चरितार्थम् अस्तु / टीका-(हे भैमि ) त्वयि भैम्यां बद्धा सञ्जिता ( स० तत्पु० ) बुद्धिः मनः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी० ) तस्यय नलर उपवासः मनःसंनिकर्षामावात् स्वस्वविषयग्रहणाभावरूपानशनम् एव व्रतं नियमः ( कर्मधा० ) एषामस्तीति तथोक्तानाम् तपोमिः स्वव्यापारेषु प्रवृत्त्यभावरूपैः अद्य त्वां भैमीम् लब्ध्वा प्राप्य अमृतेन सुधया या तृप्तिः सौहित्यम् अमृतपानजनिततृप्तिसमा तृप्तिरित्यर्थः ( तृ० तत्पु०) ताम् भजन्ते सेवन्ते इति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु०) बहिरिन्द्रियाणां चक्षुरादीनां स्वं निजं देवभूयं देवभावः देवत्वमिति यावत् चरितः अर्थः प्रयोजनं यस्य ( व० ब्रो०) तथाभूतं सफलमित्यर्थः अस्तु जायताम् / स्वद्गतमनसो मलस्य देवतास्वरूपाणि चक्षुरादीन्द्रियापि मद्-माध्यमेनाद्य त्वां लब्ध्वाऽमृतमास्वादयन्ति स्वदेवतात्वं सफलयन्त्विति मावः। अन्योऽपि कश्चित योगी ब्रह्मणि मनः समासज्य अनशनैः, व्रतैः, तपोभिश्च ब्रह्म लब्ध्वा ब्रह्मीभूतो मोक्षरूपमानन्दं भुक्त्वा स्वब्रह्मरूपदेवत्वं चरितार्थयतीत्यर्थोऽपि ध्वन्यते // 101 // व्याकरण-०माजाम् /मज्+विप् ( कर्तरि)। देवभूयम् देवस्य भाव इति देव+/ मू+क्यप् ( 'भुवो मावे' 3 / 1 / 107 ) / - अनुवाद-(हे भैमी!) तुम पर ही मन लगाये हुए उस ( नल ) की ( स्व-स्वविषयग्रहण न करके ) उपवासरूप व्रत में लगी, आज तप द्वारा तुम्हें प्राप्त करके अमृत (पान ) से तृप्त हुई बाहरी इन्द्रियों का देवतात्व सफल हो जाय [ जिस तरह ब्रह्म में मन लगाये हुए कोई योगा अनशनों, ब्रतों और तपों द्वारा ब्रह्म प्राप्त करके मोक्षरूप अमृत ( आनन्द ) से तृप्त हुआ अपना ब्रह्मत्व सफल कर देता है ] / / 101 // टिप्पणी-इन्द्रियाँ देवता हैं-इसका प्रमाण शास्त्रों में मिलता है। 'आदित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत्' इस श्रुति के अनुसार चक्षु सूर्य है। इसी तरह मन चन्द्रमा है। जल-रूप जिह्वा वरुप है। स्वक् वायु है इत्यादि / यदि विशेष रूप से नल को ही इन्द्रियों ली जाये तो वे देवता ही हैं, क्योंकि नल जब स्वयं लोकपाल-रूप हैं, देवतांश है, तो उसको इन्द्रियाँ मी स्वतः देवता-रूप ही सिद्ध हो जाती हैं / लेकिन अब तक वे नाममात्र की देवता थीं अमृतमोजित्व उनमें नहीं था, जो देवताओं का विशेष धर्म होता है। दमयन्ती के साक्षात्कार में आज अमृतमोजी भी बनकर उनका देवतात्व पूरी तरह से चरितार्थ हो जाएगा। दर्शनों के अनुसार मन का संनिकर्ष होने पर ही इन्द्रियों स्व-स्व विषय-ग्रहण करती हैं / नल का मन ही जब भैमी-गत है, तो उनका व्यापार रुक जाना स्वाभाविक ही है जिसे कवि ने उपवास का रूप दिया है। यहाँ इन्द्रियों का चेतनीकरण, चेतनों का सा व्यवहारसमारोप होने से समासोक्ति है। शब्द-शक्ति से प्रतीयमान दूसरे दार्शनिक अर्थ को उपमाध्वनि हो हम कहेंगे। शम्दालंकारों में 'बद्ध' 'बुद्धे' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।