________________ 168 नैषधीयचरिते कामधनुष्टुम् , उरोजचित्रितपत्रभङ्गेष्वपि काम-निवासात् तदुद्दोपकत्वम् / स्वामन्तरेण नल-जयाय कामस्य पावें किमपि साधनान्तरं नास्तीति भावः // 128 // ___ व्याकरण-रौद्रे रुद्रस्येदमिति रुद्र+अण / निर्विध निर्+/विद + ल्यप् / उरोजौ उरसि माताविति उरत् +/जन्+ड / पर्णशालायते पर्णशाला+क्यङ् ( आचाराथें ) / अनुवाद-(सौन्दर्य में ) उस ( नल ) से हार खाये, ( अतएक ) आत्मग्लानि अनुभव करके जिस कामदेव ने तुम्हारे केशपाश पर ( निज ) बाणसमूह, तुम्हारे माथे के नीचे धनुष और महादेव की ( तीसरी) आँख की भाड़ में देह फेंक दो, वह अब अनङ्ग बना हुआ तुम्हारी शरण आ गया है, तथा तुम्हारे कुछ-रूपी शैल की पत्रभंग-पंक्ति उसकी पर्णकुटी-जैसी बन रही है / / 128 // टिप्पणी-भाव यह है कि हार खाये हुए किसी भी व्यक्ति की तरह काम भी आत्मग्लानि के कारण अपना सब कुछ फेक-फोक कर अग्नि में आत्मघात कर बैठा है और नल से बदला चुकाने के लिये अब दमयन्ती को अपना आश्रय बनाये हुए है। उसके स्तनपर्वत को पत्रावली उसने अपनी कुटिया बना ली और वहाँ तप लीन हो गया है। यहाँ कवि द्वारा दमयन्तो के केशगश-बद्ध पुष्पों के साथ काम के पुष्पमय बाप्यों उसकी मौह के साथ काम के धनुष का अमेदाध्यवसाय किये जाने से मेदे अमेदातिशयोक्ति, रुद्र के नेत्र पर भ्राष्ट्रवारोप, दमयन्ती पर प्राश्रयस्थानत्वारोप और स्तन पर शैलत्वारोप में रूपक और पत्र-भंग से पर्षशाला का सादृश्य बताने में उपमा-इस तरह यहाँ इन सबका संकर है / शब्दालंकारों में 'चक्ष' 'चिक्षे 'श्रय' 'श्रय' 'शैल' 'शाला' तथा 'लया' 'लाय' में . छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। छन्द शार्दूलविक्रीडित ही चला आ रहा है। . साहित्यिक दृष्टि से स्तन पर शैलत्वारोप में अनुचितार्थता दोष बन रहा है, क्योंकि स्तन और शल के परिमाण में आकाश-पाताल का अन्तर है। इस सम्बन्ध में मम्मटाचार्य ने स्पष्ट कर रखा है'उपमाया उपमानस्य जातिप्रमाणगतं न्यूनत्वमधिकता वा सादृश्यानुचितार्थत्वं दोषः / यथा-'पाता. कमिव नाभिः स्तनौ क्षितिधरोपमौ' / विद्याधर ने इस अनौचित्य का यह समाधान किया है'किन्वत्र निर्मिन्न पुरुषव्यापारवर्त्मने क्रियमाणम् एतद् रूपकं गुणातिशयतामेवाश्रयति, न तु दोष. ताम् , तथा 'पर्यशालायते' इत्युपमाया एतद् रूपकमङ्गम् / यदि चैतन्न क्रियेत, तदा कवेरनौचित्यं स्यात् , अधुना खलंकारातिशयमतिपादनादौचित्यमेव' / इत्यालपत्यथ पतत्रिणि तत्र भैमी सख्यश्चिरात्तदनुसन्धिपराः परीयुः / शर्मास्तु ते विसृज मामिति सोऽप्युदीर्य वेगाज्जगाम निषधाधिपराजधानीम् / / 129 // अन्वयः-तत्र पतत्त्रिणि इति आलपति सति अथ तदनुसन्धानगराः सख्यः चिरात् भैमीम् परीयुः / सः अपि ते शर्म अस्तु, माम् विसृज' इति उदीर्य वेगात् निषधाधिप-राजधानीम् जगाम / टीका-तत्र तस्मिन् पतत्त्रिणि पक्षिणि हंसे इत्यर्थः इति उक्त-कारेण आलपति कथयति सति अथ तत्पश्चात् तस्या दमयन्त्या अनुसन्धानम् अन्वेषणम् ( 10 तत्पु०) परं प्रधानम् ( कर्मधा० ) यासां तथाभूताः (ब० वी० ) सख्यः आलयः चिरात् बहुकालानन्तरं भैमी दमयन्तीम् परीयुः परागताः परितः आगत्य वेष्टयामासरित्यर्थः। स हंसः अपि 'ते तभ्यं शर्म कल्याणम् अस्तु जायताम् . माम् हंसं विसृज गन्तुमनुमन्यस्व' इति उदीर्य कथयित्वा वेगात् जवात् शीघ्रमेवेति यावत् निषधानाम् एत