________________ तृतीयसगः पद्मम्' कहकर पद्म को पुल्लिङ्ग मो माना गया है तथापि कवि जगत् में वह सदा नपुंसक ही प्रयुक्त होता चला आ रहा है। इसीलिए दर्पणकार ने 'माति पद्मः सरोवरे' उदाहरण देकर पद्म की पुल्लिगता में अप्रयुक्तत्व दोष कहा है। इस पद्य में कवि ने दर्शनों और पुराणों के इस सिद्धान्त की भोर संकेत किया है कि जिस कारण से कार्य को उत्पत्ति होती है, अन्त में उसी में उसका लय होता है। परमात्मा से निकला यह विश्व अन्त में उसी में लीन हो जाता है। बन्धाढ्यनानारतमल्लयुद्धप्रमोदितैः केलिवने मरुद्भिः। __ प्रसूनवृष्टिं पुनरुक्तमुक्तां प्रतीच्छतं मैमि ! युवां युवानौ // 124 / / अन्वयः-हे भैमि ! युवानौ युवाम् केलि-वने बन्धा...मोदितैः मरुद्भिः पुनरु कमुकाम् प्रसूनवृष्टिम् प्रतीच्छतम् / टीका-हे भैमि, युवा च युवतिश्चेति तौ ( एकशेष स० ) युवा नलश्व त्वं च केलये वनम् (च. तत्पु० ) विलास-काननं तस्मिन् बन्धाः कामशास्त्र पोक्तानि पद्माद्यानि संभोगासनानि तै पाढ्यं सम्पन्नम् ( तृ० तत्पु० ) यत् नाना विविधं रतं संभोगः एव मल्लयुद्धं द्वन्द-युद्धम् ( कर्मवा० ) मल्लयोः युद्धम् ( 10 तत्पु० ) तेन प्रमोदितैः सुरभितैः अथ च प्रमोद प्रापितैः ( तृ० तत्पु० ) मरुद्भिः वायुभिः एव मरुद्भिः देवैः ( 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः) पुनरुक्तं पुनः पुनः निबिडमित्यर्थः यथा स्यात्तथा मुक्तां त्यक्तां कृतामिति यावत् प्रसुनानां पुष्पाणां वृष्टिं वर्षम् (10 तत्पु० ) प्रतीच्छा मृलोतम् / देवा हि शौर्य-पूर्ण मल्लयुद्धं दृष्ट्वा गगनात् पुष्पाणि वर्षन्ति / एवं वायवोऽपि वृक्षान् कम्पयित्वा केलिवने युवयोरुपरि पुष्पवृष्टिं करिष्यन्तीति भावः / / 124 // व्याकरण-रतम् रम्+क्तः ( भावे ) / युद्धम् युध्+क्तः (मावे) / प्रमोदितः प्रकृष्टः मोदः सौरभं सजात एषामिति प्र+मोद+इनच् , अय च प्र+/मुद्+णि+क्तः ( कर्मणि) पुनरुक्तम् इसके सम्बन्ध में श्लोक 114 को टिप्पणी देखिये। अनुवाद-हे भैमी, तुम दोनों नौ नवान ( उत्तानादि ) आसनों से सम्पन्न अनेक प्रकार के संमोग रूरी मल्लयुद्ध से सुगन्धित बने वायुनों के रूप में प्रसन्न हुर देवताओं द्वारा बार-बार फेंका हुई पुष्प-वृष्टि ग्रहण करो / / 124 / / टिप्पणी-यहाँ रत पर मल्लयुद्धत्व का तथा मरुतां ( वायुओं ) पर मरुती ( देवताओं ) का अध्यारोप होने से रूपकालंकार है जो 'मरुतों' और 'प्रमोदित' शब्दों में श्लेषानुप्राणित है। आशीरलंकार चठा ही आ रहा है। विद्याधर ने यहाँ प्रतीयमानोत्प्रेक्षा मो मान रखी है। शब्दालंकारों में 'मोदि' 'मरुद्' तथा 'युवा' 'युवा' में छेक ओर अन्यत्र वृत्त्यनु पास है। वर्षन में अश्लीलता आ जाने से यहाँ अश्लीलत्व दोष बन रहा है / अन्योन्यसङ्गमवशादधुना विभातां तस्यापि तेऽपि मनसी विकसद्विलासे / स्रष्टु पुनर्मनसिजस्य तनुं प्रवृत्तमादाविव द्वयणुककृत् परमाणुयुग्मम् // 125 //