________________ 164 नैषधीयचरिते अन्वयः-अधुना अन्योन्य-संगमवशात् विलसद्-विलासे तस्य अपि ते अपि च मनसी मनसिनस्य तनम् पुनः स्रष्टुम् प्रवृत्तम् आदी व्यणुककृत् परमाणुयुग्मम् इव विमाताम् // 125 / / टीका-अधुना इदानीं युवयोविवाहानन्तरमित्यर्थः अन्योन्यम् परस्परं यथा स्यात्तथा यः संगमः समागम: तस्य वशात् कारणात् ( प० तत्पु०) विलमन् विकसन् विलास लल्लासः हर्ष इति यावत् (कर्मधा० ) ययोस्ते ( व० वी० ) तस्य नलस्य अपि ते तव अपि च मनसी मनोद्वयम् मनसिजस्य दाहानन्तरं केवलं मनोजन्यस्य कामस्य तनुं शरीरं पुनः स्रष्टुं निर्मातुं प्रवृत्तं व्यापृतम् आदी आरम्मावस्थायां व्यणुकं करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) परमायोः परमाणुद्वयस्य युग्मं युगलम् ( 50 तत्पु० ) इव विमाता शोभेताम् / युवयोः परमाणुरूपं मनोदयं मिलित्वा द्वयणुकमुत्राध क्रमशः व्यणु. कादि-रूपेण मनसिजस्य स्थूलं मौतिक शरीरं सृजत्विति मावः // 126 // ___ व्याकरण-अन्योऽन्यम् अन्यम् अन्यं प्रतीति कर्म-व्यतिहार में द्विरुक्ति और पूर्वपद को सु प्रत्यय / मनसिजस्य मनसि जायते इति मनस् + जन्+ड, विकल्प से सप्तमी विभक्ति का छोपामाव ( लोप में मनोज ) / अनुवाद-अब परस्पर समागम से तुम्हारे भी और उस ( नल ) के भी दोनों के मन मनोज ( काम ) के शरीर को फिर से उत्पन्न करने में लगे, आरम्भ में इयणुक बनाने वाले दो परमाणुओं की जैसी शोभा धारण करें। टिप्पणी-यहाँ दो मनों में दो परमाणुओं की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है / आशीरलंकार चला ही मा रहा है / मनसिन के साभिप्राय होने से परिकरांकुर है। अन्योन्य तथा 'मनसी' 'मनसि' में लेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। उपरोक्त पद्य में कवि वैशेषिक दर्शन के परमाणुवाद की ओर संकेत कर रहा है। उसके अनुसार सारी सृष्टि परमाणुओं से बनती है। परमाणु पृथिवी आदि भूतों के परम सूक्ष्म तत्त्वों को कहते हैं, जो नित्य हुआ करते हैं। प्राणियों के पूर्वजन्म-कृत कर्म-रूप निमित्त कारणवश दो परमाणुओं में क्रिया होती है, जिससे परस्पर मिलकर वे पहले दयणक को उत्पन्न करते हैं। बादको तीन घणको के संयोग से त्र्यणुक और फिर क्रमशः उनके संयोग से स्थूल, स्थूलतर और स्थूलतम सृष्टि बनती है / न्यायशास्त्र वाल मन को परमाणु-रूप मानते हैं, अत: नल और दमयन्ती के परमाणु रूप दोनों मनों के संयोग से मनसिज को उत्पन्न करने वाला द्वयणुक बनेगा, फिर उसी क्रम से मनसिज के स्थूल देहकी उत्पत्ति हो जाएगी और वह साकार-शरीरी हो जाएगा। सर्ग के अन्त में छन्द बदल जाने के नियमानुसार उक्त पद्य में कवि ने वसन्ततिलका वृत्त का प्रयोग किया है जिसका लक्षण यह है-'उक्ता वसन्ततिलका त-भ-जा जगो गः' अर्थात् तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु / कामः कौसुमचापदुर्जयममुं जेतुं नृपं त्वां धनु वल्लीमव्रणवंशजामधिगुणामासाथ माद्यत्यसो। ग्रीवालकृतिपट्टसूत्रलतया पृष्ठे कियल्लम्बया भ्राजिष्णुं कषरेखयेव निवसस्सिन्दूरसौन्दर्यया // 126 //