________________ 12 नैषधीयचरिते अथ च नेत्रचुम्बनं करोति सा निद्रा सुप्तिः स्वद् ऋते त्वां विना, स्वदतिरिक्ता अङ्गना नारी वा अधुना सम्प्रति नास्ति / विसंशोकतुं न तन्नेत्रयोः निद्रा आयाति, नापि स्वदतिरिक्ता तं मोहयन्ती काप्यन्या नारी तं रमयतीति मावः / एतेनास्य निद्रात्यागः विषयत्यागश्च सूच्येते // 108 / / ग्याकरख-शख्याम् भधिशग्य-अधि उपसर्ग के योग से अधिकरण में कर्मता हो रही है (अधिशीड्स्थासा कर्म' 14.46 ) / खद ऋते 'ऋते' के योग में पञ्चमी है। अनुवाद-रात को शय्या पर लेटे हुए उस ( नल ) के मन को मोहित ( अचेत, आनन्दित ) करती हुई जो आलिङ्गन करके इसके नयनों को चूमती है, वह निद्रा अथवा तुम से मिन्न कोई नारी इस समय नहीं है // 108 / / टिप्पणी-इस श्लोक में कवि निद्राच्छेद और विषय-निवृत्ति इन दो कामदशाओं का उल्लेख कर रहा है / वियोग में निद्राविच्छेद और विषय-निवृत्ति दोनों प्रस्तुत हैं। निद्रा तथा अन्य अङ्गना का यहाँ श्लेषमुखेन एकधर्माभिसम्बन्ध बताने से तुल्ययोगिता अलंकार है / विद्याधर विकल्प अलंकार बता रहे हैं। विकल्प वहाँ होता है, जहाँ तुल्वबल-विरोध हो अर्थात् एक ही समय में दो विरोधी वस्तुओं का विकल्प से वर्णन हो। शब्दालंकारों में 'शय्य' 'शय्यां' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। स्मरेण निस्तक्ष्य वृथैव बाणैावण्यशेषां कृशतामनायि / अनङ्गतामप्ययमाप्यमानः स्पर्धा न स्पर्ध विजहाति तेन // 105 // अन्वयः-अयम् स्मरेण बाणैः निस्तक्ष्य वृथा एव लावण्य-शेषाम् कृशताम् अनाथि, अनङ्गताम् आप्यमानः अपि ( अयम् ) तेन सार्धम् स्पर्धाम् न विजहाति। टीका-प्रयम् प्ष नलः स्मरेण निजरूपसाम्यक्रन मदनेन बाणैः शरैः निस्तक्ष्य निर्मिद्य वृथा व्यर्थम् एव लावण्यं सौन्दयं ('मुक्ताफलेषुच्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा। प्रतिभाति यदङ्गषु तल्लावण्यमिहेष्यते" // शेषम् ( कर्मधा० ) यस्यास्तथामृताम् ( 40 बी०) कृशताम् तनुताम् अनायि प्रापि, शरीरे काम-पोडया क्षीणेऽपि सति शारीरिक सौन्दर्यम् अक्षीणमेव स्थितमिति व्यर्थः क्षीणीकरणे स्मर-प्रयास इति भावः। अनङ्गस्य न अङ्गानि (अनुदरा कन्येतिवत् ईषदथेपरोऽत्र नशब्दः) ईषदङ्गानि कृशीमूतान्यङ्गानीति यावत् अथ च न अङ्गं शरीरं यस्य ( न ब० बी०) तस्य मावस्तत्ता ताम् भाप्यमानः नीयमानः अपि अयम् नलः तेन स्मरेण साध सह स्पर्धाम् प्रतिद्वन्द्विता रूपसाम्यमिति यावत् न विजहाति न त्यजति, शरीरतः क्षीणोऽपि सन् स्मरवत् सुन्दर एवास्तीति मावः // 109 / / ___व्याकरण-निस्तचय निस्+Vतक्ष् +ल्यप् / अनायि नी+लुङ् कर्मवाच्य; नी धातु के द्विकर्मक होने से कर्मवाच्य में प्रधान कर्म में प्रथमा / प्राप्यमान: आप+पिच्+शानच (कर्मवाच्य ) यहाँ मी नी की तरह द्विकर्मक होने से प्रधान कर्म में प्रथमा। अनवाद-बापों से छील कर व्यर्थ ही कामदेव द्वारा यह ( नल ) इतना पतका बना दिया गया है कि जिसमें सौन्दर्य ही शेष रहा हुआ है। अङ्गों में इतना पतला बना दिया जाता हुआ मी वह ( नल ) उस ( कामदेव ) के साथ ( सौन्दर्य में ) स्पर्धा करना नहीं छोड़ रहा है / / 109 //