________________ नैषधीयचरिते पापपुण्यसुखदुःखादिवत् विशेष्टम् , न तु विशेषणम् , यथाऽऽह समरः- 'वलीबे शीघ्राधसत्वे स्यात् त्रिवेषां सत्वगामि यत्' / तस्य अणुना लेशमात्रेणापि न मूरम् जातम् नलमा लगन्ती रक्ष्मीमाकोल्य विष्णोः हृदये ईषदपीp न जातेति मावः // 31 // ___ म्याकरण-भूः भवतीति भ+क्विप् (कर्तरि ) / ईष्या Vईय + अप ( मावे )+ टाप् / भूतम् /भू+क (माववाच्य ) / अनुवाद-क्योंकि समस्त प्राणमात्र रक्ष्मी के पति विष्णु का रूप है, इसलिए पतिव्रता लक्ष्मी द्वारा उस (नल के आलिगन से होने वाली कोई मी पातिव्रत्य-क्षति नहीं हुई, ( इसलिए ) उसके पति को ईर्ष्या से होनेवाला जरा मी मनोमालिन्य नहीं हुआ // 31 // टिप्पणी- यहाँ कवि नल के शरीर से चिपकी लक्ष्मी के सतीत्व को निपुणता से बचा गया। नल के शरीर से लगी लक्ष्मी ( सौन्दर्यच्छटा ) और है और विष्णु की पत्नी-भूत लक्ष्मी और है। सरस्वती की तरह कवि ने यह भी दोनों लक्ष्मियों के भिन्न-भिन्न होते हुए भी अमेदाध्यवसाय कर रखा है। इसलिए पूर्ववत् हम यहाँ भी भेदे और अमेदातिशयोक्ति कहेंगे, जिसके साथ पातिव्रत्यक्षति तथा क लुष्य का कारण होते हुए भी पातिव्रत्यक्षात और कालुष्य-रूप कार्य के न होने से बन रही विशेषोक्ति का स्कर है। विशेषोक्ति भी उत्त-निमित्ता है। 'भूता' 'भूतम्' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इन्द्राणी सेहेकर भी तक पवित्र देवियों का कवि द्वारा चरित्र-हनन 'औचित्य' की दृष्टि से ठीक नही है-ऐसी का पाठकों के हृदय में नहीं ठनी चाहिए। कारण यह है कि उक्त देवियों की निदा कवि का अर्थवाद है। उसे तो नल का अत्यधिक सौन्दर्य विवक्षित है, इसलिए मीमांसादर्शन के अनुसार-'न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्तते, अपि तु स्तुत्यमेव स्तोतुम्' / धिक तं विधेः पाणिमजातलज्ज निर्माति यः पर्वणि पूर्णमिन्दुम् / मन्ये स विज्ञः स्मृततन्मुखश्रीः कृतार्धमौज्झदरमूनि यस्तम् // 32 // अन्वयः-(हे भैमि, ) विधेः अजात-रजम् तम् पापिम् धिक् , यः पर्वणि पूर्णम् इन्दुम् निर्माति, स विज्ञः इति मन्ये, यः स्मृत-तन्मुख-श्रीः सन् कृतार्थम् तम् हर-मूनि औज्झत् / टीका-(हे भैमि !) विधेः ब्रह्मणः न जाता समुत्पन्ना र.ज्जा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (व० मी० ) तम् पाणि हर धिक् यः पपि पूणिमायां पूर्ण सम्पूम् इन्दुम् चन्द्रं निमोति रच्यति; नरमुरुसत्त्वे पुनश्चन्द्र निर्माण व्यथमेव, पुनरुत्तत्वात् , स पाणिः हस्तो विशः बुद्धिमान् अस्ति इत्यहं मन्ये जाने, यः पाणिः स्मृता स्मृतिविषयीवृता तन्मुखश्रीः (कर्मधा० ) तस्य नलस्य मुखस्य वदनस्य (उमयत्र 20 तापु० ) श्रीः शोमा ( व.मंधा० ) येन तथाभूतः (ब० बी०) सन् वृतो रचितोऽर्थः अभाग एकदेश इति यावत् यस्य थाभूतम् (20 बी०) तम् इन्दु हरस्य महादेवस्य मूधिन शिरसि ओजयत् त्यत्तवान् मा Ritalत यावत् / ३.स्यापि वस्तुनः पूर्वसिद्धत्वे पुनरतन्निर्माणत्यागो बुद्धिमत्तेति भावः। 6-नारायण शम्देषु-'पूवम् एव.वलं च चन्द्रं बघप्येक एक ब्रहणः पाणिनिर्माति, कार्य-मेदा-मूर्खत्वं विशस्व कालमेदादुपचर्यते' // 32 //