________________ / तृतीयसर्गः व्याकरण-द्वात्रिंशता 'विंशत्याचाः सदैकत्वे सर्वाः संख्येय-संख्ययोः' -इस नियम से एक वचन / गणनात् ल्पब्लोपे कर्मणि पञ्चमी अर्थात् गपयित्वा। द्वेधा दि+धा और पा को एषाच ('एधाच्च' 5 / 346) / अनुवाद- ब्रह्मा ने इस (नल ) के मुँह के भीतर बत्तोस दाँतों की रेखाओं से गिनकर इस ( मुख ) में चौदह और अट्ठारह-दोनों प्रकार से (बत्तीत ) विद्याएँ हैं-यह कहा हो जैसे-॥३५॥ ‘टिप्पणी-यहाँ दातों पर गिनती की रेखाओं की कल्पना करने से उत्प्रेझा है, लेकिन विद्याधर 'ये दाँत नहीं हैं बल्कि गिनती को रेखायें है' -इस तरह आर्थ अमहा मानकर उपेक्षा को सापहन मानते हैं / शब्दालंकारों में वृत्यनुपात है। श्रियौ नरेन्द्रस्य निरीक्ष्य तस्य स्मरामरेन्द्रावपि न स्मरामः / वासेन तस्मिन् क्षमयोश्च तस्मिन् बुद्धौ च धर्मः खलु शेषबुद्धौ // 36 / / अन्वय-तस्य नरेन्द्रस्य श्रियो निरीक्ष्य (वयम् ) स्परामरेन्द्रौ अपि न स्मरामः तस्मिन् क्षमयोः च सम्यक् वासेन खलु शेषबुद्धौ बुद्धौ न दध्मः। ___टीका-तस्य प्रसिद्धस्य नराणाम् इन्द्रस्य (10 तत्पु० ) नरेशस्य नलस्य श्रोः सुषमा च श्रीः धनसम्पच्चेति प्रियो ( 'शोमा सम्पत्ति-पद्मास्तु लक्ष्मीः श्रो!' इति शाश्वतः) (एकशेष स०) निरीक्ष्य दृष्ट्वा वयम् स्मरः कामश्च अमरेन्द्रः शक्रश्च ( द्वन्द ) अमराणां देवानाम् इन्द्रः (10 तत्पु.) तो अपि न स्मरामः न स्मृतिविषयीकुर्मः, नलस्य सुषमा स्मरस्य सुषमा, धन-सम्पच्च शक्रस्य धनसम्पदमतिशेते इत्यर्थः। तस्मिन् नले क्षमा पृथिवी च ममा मान्तिश्च तयोः ( 'क्षितीक्षान्त्योः क्षमा' इत्यमरः) ( एकशेष स० ) सम्यक् निर्बाधत्वेनेत्यर्थः वासेन वसत्या विद्यमानतयेति यावत् खा निश्चयेन वयं शेष: शेषनागश्च बुद्धः सुगतश्चेति (द्वन्द ) तौ भपि बुद्धौ मनसि न दध्मः न कुर्मः मनसापि न स्मराम इत्यर्थः। क्षितेरेवैकस्या आधारत्वं शेषे, क्षान्तेरेवेकस्या आधारस्वं च बुद्धे, किन्तु न द्वयोरप्याधारत्वमिति कृत्वासौ तौ दावप्यतिशेते इति मावः // 36 // व्याकरण-स्मरेन्द्रावपि न स्मरामः यहाँ 'अधोगर्थदयेशाम् (2 / 3 / 52 ) से षष्ठी इसलिये नहीं हो पाई कि कवि को शेषत्वेन विवक्षा नहीं थी। अनुवाद-उस राजा ( नल ) की दोनों श्रियों-सुषमा और धन-सम्पदा को देखकर हम कामदेव और इन्द्र को भी याद नहीं करते, उस ( नल) में दोनों क्षमाओं-वृथिवी और शान्ति का अच्छी तरह वास देखकर हमारे मन में न तो शेषनाग आता है और नहीं गौतम बुद्ध बाता है / / 36 // टिप्पणी-यहाँ श्री और क्षमा शब्दों में श्लेष है, जिसका यथासंख्य के साथ सांकर्य है। गुषों में राजा नल क्या कामदेव, क्या अमरेन्द्र, क्या शेष और क्या बुद्धदेव-प्सबको मात कर देता हैयह व्यतिरेक-ध्वनि है / शब्दालंकारों में 'स्मरा' 'स्मरा' और 'बुद्धो' 'बुद्धौ' में यमक है / बुद्धौ वाले बमक के साथ 'उद्धौ' को तुक मिलने से पदान्त-गत अन्त्यानुपास का एकवाचकानुप्रवेश संकर मो है / 'नरे' 'निरी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास हैं।