________________ . तृतीयसर्गः व्याकरण-धिकपाखिम् धिक् के योग में द्वितीया हो रही है। विज्ञः विशेषेण जानातोति वि+/शा+कः ( कर्तरि ) / औज्झत् /उज्झ्+लङ् / अनुवाद-(हे भैमी ! ) ब्रह्मा के उस निलज्ज हाथ को धिक्कार है, जो ( नल के मुख के होते 2 पूर्णमासी के दिन पूर्ण चन्द्रमा का निर्माण करता रहता है। मैं समझता हूँ कि ( ब्रह्मा का) वही हाथ समझदार है, जो उस ( नल ) के मुख का सुषमा को याद किये हुए, आधा ही बनाये उस ( चन्द्रमा ) को महादेव के सिर पर डाल देता है // 32 // टिप्पणी-यहाँ मुख के उपमान-मूत चन्द्रमा का तिरस्कार किया गया है, अतः प्रतीप अलंकार है जिससे यह वस्तु-ध्वनि निकलती है कि नल का मुख सौन्दर्य में सर्वातिशायी है। निलीयते हीविधुरः स्वजैत्रं श्रत्वा विधुस्तस्य मुखं मुखान्नः। सूरे समुद्रस्य कदापि पूरे कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्म // 33 // अन्वयः-विधुः नः मुखात् स्व.जैत्रम् तस्य मुखम् श्रुत्वा हो-विधुरः सन कदा अपि सूरे, कदा अपि समुद्रस्य पूरे, कदाचित् ( च ) अभ्रभ्रमदभ्र-गर्भ निलायते / टीका-विधुः चन्द्रमाः नः अस्माकं हंसानाम् मुखात् वक्त्रात् स्वस्य आत्मनः जैवं विजयि (10 तत्पु० ) तस्य नलस्य मुखं वदनं श्रुत्वा आकर्ण्य हाः लज्जा तया विधुरः व्याकुलः ( तृ० तत्पु०) सन् कदापि कस्मिंश्चित् समये सूरे सूर्ये ( 'सूर-सूर्यमादित्याः' इत्यमरः ) निलोयो लोनो भवतीति सर्वत्रान्वयः, अमावास्यायां तिथी चन्द्रमाः सूर्ये लोयते इति ज्योतिःशास्त्रम् ; कदापि समुद्रस्य सागरस्य पूरे प्रवाहे निलीयते, प्रत्यहं चन्द्रमाः सायं समुद्रान्तः प्रविशति; कदाचित् कदापि च अभ्र आकाशे भ्रमन्ति इतस्ततः सञ्चरन्ति यानि अभ्राणि मेघाः (कर्मधा०) तेषां गर्भ मध्ये निलीयते / पराजितो हि पुरुषो लज्जाकुलः सन् यत्र तत्र लोकेभ्य आत्मानं निहते // 33 // व्याकरण-हा /हो+क्विप् ( भावे ) / विधुरः विगता धूः ( कार्यभारः ) यस्मात् (प्रादि 10 व्रो०)। समुद्रः समुनत्तीति सम् +Vउन्द् ( क्लेद ने ) इति यास्कः / अनुवाद-चन्द्रमा हमारे मुँह से ( सुषमा ) अपने को पराजित कर देने वाले उप ( नल) के मुख के विषय में सुनकर लज्जा का मारा हुआ कभी तो सूर्य में कमो समुद्र के जल-प्रवाह में और कभी आकाश में घूमते हुए मेषों के भीतर छिा जाया करता है / / 33 / / टिप्पणी-चन्द्वमा स्वभावतः ही सूर्य, समुद्र और मेवों में छिपता रहता है, किन्तु कवि की कल्पना यह है कि मानों वह नल के मुख से हार खाकर लाना के मारे छिपता जा रहा हो, इसलिये यह उत्प्रेक्षा है, किन्तु वाचक शब्द न होने से यह यहाँ प्रतीयमाना है। विद्याधर ने जड़ चन्द्रमा पर चेतनव्यहार-समारोह होने से समासोक्ति कहो है / यहाँ एक ही आधेय चन्द्रमा का सूर्य, समुद्र और मेव-अनेक आधारों में बताने से पर्याय भी है। शब्दालंकारों में 'दर्भ' 'दभ्र', 'विधु' 'विधु' यमक, 'मुखं' 'मुखा', में छेक, 'सूरे' 'पूरे' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपात है। संज्ञाप्य नस्स्वध्वजभृत्यवर्गान् दैत्यारिरत्यब्जनलास्यनुत्यै। तत्संकुचन्नामिसरोजपीताद्धातुर्विलज्ज रमते रमायाम् // 34 // .