________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ भी पिळले श्लोक की तरह दोनों श्लोकाधों का परस्पर विम्ब-प्रतिविम्वभाव होने से दृष्टान्त है, किन्तु विद्याधर यहाँ भी अर्थान्तरन्यास मान रहे हैं / दृष्टान्त और अर्थान्तरन्यास में बड़ा भेद है / दृष्टान्त में दोनों वाक्य विशेष वाक्य रहते हैं जब कि अर्थान्तरन्यास में पूर्व वाक्य या तो सामान्य रहेगा या विशेष, सामान्य रहने की अवस्था में उत्तर समर्थक वाक्य विशेष वाक्य रहेगा और विशेष वाक्य-रहने की अवस्था में उत्तर समथक वाक्य सामान्य वाक्य रहेगा। उक्त श्लोक में दोनों वाक्य विशेष वाक्य हैं, इसलिए यह दृष्टान्त का ही विषय है / तिक्तायते' में उपमा है क्योंकि आचारार्थ सादृश्य में ही पर्यवसित होता है / तिक्ता भवतीति क्यष् में उपमा नहीं होगी। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। भरातुरासाहि मदर्थयाच्या कार्यान कार्यान्तरचुम्बिचित्त / तदार्थितस्यानवबोधनिद्रा बिमर्त्यवज्ञाचरणस्य मुद्राम् // 95 // अन्वयः-(हे हंस ) कार्यान्तर-चुम्बि चित्ते घरातुरासाहि मदर्थयाच्या न कार्या / तदा अथितस्य अनवबोधनिद्रा प्रवशाचरणस्य मुद्राम् विमति / टीका-(हे हंस ) अन्यत् कार्यम् इति कार्यान्तरम् ( निपातित समास ) तत् चुम्बतीत्येवंशीलम् ( उपपद तत्पु० ) अन्यस्मिन् कार्य व्यासक्तमित्यर्थः चित्तम् मनः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूते ( ब. बी० ) धरायाः पृथिव्याः तुरासाहि इन्द्रे नृपनले इत्यर्थः मदथें मह्यमिति (अर्थेन चतुर्थ्यथै निस्यसमासः) याच्या प्रार्थना मत्प्रणयनिवेदनमिति यावत् न कायां विधेया / कार्यान्तरव्याप्तक्तमनस्कं तं प्रति मत्प्रेम-विषयो नोपन्यस्तव्य इति भावः / तदा तस्मिन् समये अर्थितस्य याचितस्य योऽनवबोधोऽ. शानम् अनाकर्णनमित्यर्थः एव निद्रा निद्रासदृशी मानसी स्थितिरित्यर्थः (कर्मधा० ) अबशायाः तिरस्कारस्य आचरणस्य करणस्य ( ष० तत्पु० ) मुद्राम् चिह्न बिमति धत्त / अन्यत्र व्यासक्तमना जन उपन्यस्त-विषये ध्यान न दत्त्वाऽवजानीते इति भावः // 15 // व्याकरण-कार्यान्तरम् मयूरव्रंसकादि के भीतर आने से यह अस्वपदावग्रही समास निपातन से सिद्ध होता है / तुराताहि-तुरं वरितं सहते शनिति 'तुरासाट् छन्दसि सहः' 2 3.63 सूत्र से ण्विन् प्रत्यय द्वारा निष्पन्न यह वैदिक प्रयोग कवि ने लौकिक भाषा में अयुक्तकर रखा है। इसे लौकिक रूप देने के लिये हम चुरादि के साहयति धातु से विप् प्रत्यय लाकर निष्पन्न कर सकते हैं। वैदिक प्रयोम में भी कोई दोष नहीं। महाकवि वैदिक प्रयोग मी करते आते ही हैं। अनुवाद-(हे हंस ) जब धरा के इन्द्र ( नल ) का मन किसी और काम में लगा हुआ हो, तुम मेरी तरफ से प्रार्थना न करना, ( क्योंकि ) प्रार्थित विषय की ओर उस समय नींद में जैसे होने बाली अनवधानता तिरस्कार मरे व्यवहार की छाप लगा देती है / / 95 / / टिप्पणी-यहाँ अनवबोध पर निद्रात्व का आरोप होने से रूपक है, याच्या न करने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग भी है / 'कार्या' 'कार्या' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / विशेन विज्ञाप्यमिदं नरेन्द्रे तस्मारवयास्मिन् समयं समीक्ष्य / आत्यन्तिकासिद्धिविलम्बिसिद्धयोः कार्यस्य कार्यस्य शुमा विमाति // 16 //