________________ तृतीयसर्गः 1 // प्रयाप्तः प्रयत्नः परस्परम् अन्योन्यं योग्ययोः योग्यश्च योग्या च तयोः ( एकशेष द्वन्द ) समागमाय संयोजनाय ( 10 तत्पु० ) प्रतोतः प्रसिद्धः अस्तोति शेषः ब्रह्मा योग्य योग्ययोरेव संबन्धं करोति / स्वं नलयोग्यासि नलश्च वयोग्योऽस्तीति कृत्वा ब्रह्मा युवयोदयोः सम्बन्धं करिष्यतीति निश्चप्रचमेवेति मावः // 48 // व्याकरण-निशा 'पहनो.' ( 6 163 ) से निशा शब्द को निश् आदेश / गिरीशम् गिरिः कैलासः तस्येशम् कैलासपतिम् / स्वारसिकः स्वन रसेन = इच्छया चरतीति स्वरस+ठक / यहाँ व शब्द के द्वार आदि के अन्तर्गत होने से तदादि विधि के अनुसार 'दौवारिक' की तरह 'सौत्ररसिक' बनना चाहिये था। तथापि माष्य में 'स्वाथिक' 'स्वाभाविक' आदि प्रयोगों को देखकर यहाँ वृद्धि ही हुई है। भनुवाद-रात्रि के साथ चन्द्रमा को, पार्वती के साथ शिब का और लक्ष्मी के साथ विष्णु का सम्बन्ध जोड़ने वाले ब्रह्मा का मो स्वतः प्रवृत्त प्रयत्न आपस में योग्य-योग्यों को जोड़ने हेतु प्रसिद्ध है // 48 / / टिप्पणी-यहाँ सम के साथ सम का योग बताया गया है, अतः समालंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। वेलातिगस्त्रैणगुणाब्धिवेणि नं योगयोग्यासि नलेतरेण / सन्दय॑ते दर्भगुणेन मल्लीमालान मृही भृशकर्कशेन // 49 // भन्वयः-वला.. वेणिः (त्वम्) नलेतरेण योगयोग्या न असि। मृदो मल्लो-माला भृश-कर्कशेन दर्भगुपेन न संदर्म्यते / टोका–वेला मर्यादां तीर-सीमामित्यर्थः अतिक्रम्य समुल्लय गच्छतीति तथोळा (उपपद तत्पु०) या बैषगुणाग्निवेपिः (कर्मधा० ) नेपाः स्त्रीसम्बन्धिनश्च ते गुणाः ( कर्मधा०) सौन्दर्यादय एव अन्धिः समुद्रः ( कर्मधा० ) तस्य वषिः लहरी अर्थात् प्रवाह-रूपा ( 'वेषो केशबन्धे जलनुतौ' इति वैजयन्ती ) ( प० तत्पु० ) त्वम् नलात् इतरेण भिन्नेन वरेण ( 50 तत्पु० ) सह योगस्य सम्बन्धस्य योग्या अहाँ (प० तत्पु. ) नासि न विद्यसे / परमसुन्दर्यास्ते नलातिरिक्त पुरुषेण सह विवाहो नोचित इति भावः / मृद्वा कोमला मल्ल्या मल्लिकालतापुष्पाणां माला सक् (10 तत्पु० ) भृशं बहु यथा स्यात्तथा कर्कशेन कटोरेण ( सुप्सुपेति समासः) दर्माणां गुणेन सूत्रेण दर्भनिर्मितदोरकेषेति यावत् न सन्दर्यते न अध्यते / / 49 // व्याकरण-स्त्रैण-स्त्रोणामिति स्त्री+नञ् / वेणिः-नयन्तत्वात् हस्वः। मृद्वी मृदु+डीए (विकल्प से ) सन्दय॑ते-चौरादिक दृभ् से लट् ( कर्मवाच्य ) न कि तौदादिक दृभ से, अन्यथा 'संरभ्यते' बनेगा। विद्याधर और मल्लि. 'संदृभ्यते' ही पाठ देते हैं। अनुवाद-स्त्रियों के योग्य (सौन्दर्यादि) गुणरूर समुद्र को सोमातीत लहर-रूप तुप नल से मिन्न ( वर ) के साथ सम्बन्ध-योग्य नहीं हो, (क्योंकि ) चमेलो के सुकुमार कुसुमो की माला बड़े कठोर कुश के ( बने ) होरे से नहीं गूंथो जाती है / 49 //