________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ 'पाप' 'श्राप' 'वार्य' 'मार्य' में पादान्तगत अन्त्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अलं विलय प्रियविज्ञ यानां कृत्वापि वाम्यं विविधं विधेये / यशःपयादाश्रवतापदोत्थात् खलु स्खलिरवास्तखलोक्तिखेलात् // 84 // अन्वयः-हे प्रिय-विज्ञ, यानां विलक्ष्य अलम् ; विधेये विविधम् वाम्यम् कृत्वा अपि अलम्, आप्रवतापदोत्यात् अस्त-खलोक्ति-खेलात् यशःपथात् स्खलित्वा खलु / टीका-हे प्रियश्चातौ विशो विशेषशश्च तत्सम्बुद्धौ ( कर्मधा० ) याञा मत्प्रार्थनां विकध्य अतिक्रम्य अलम् नलप्राप्त्यर्थ मे प्रार्थना त्वया नोल्लङ्घनीयेत्यर्थः / विधेये विधातुं योग्ये कर्तव्य-कार्ये इति यावत् विविधम् विविधा विद्या प्रकारो यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) वाम्यम् वामस्य मावं वक्रत्वम् कृत्वा विधाय अपि अलम् न कर्तव्यमित्यर्थः। आश्रवः वचने स्थितः ('वचने स्थित आश्रयः / श्त्यमरः) स्वप्रतिशपतिपालक इति यावत् तस्य भावस्तत्ता एव पदम् उत्तमं स्थानं (कर्मधा०) तस्माद उत्तिष्ठति उत्सयते इति तथोक्तात् ( उपपद तत्पु० ) अस्ता निरस्ता खलोक्ति खेला ( कर्मधा०) खलानां दुर्जनानाम् उक्तीनां निन्दावचनानामित्यर्थः खेला विलासः ( उभयत्र 10 तत्पु०) येन तथाभूतात् ( व० व्रो० ) यशसः कीर्तेः पन्था मार्गः तस्मात् (प० तत्पु० ) स्खलित्वा स्खलनं कृत्वा विचलतीभूयेति थावत् खलु न स्खलितव्यमित्यर्थः ('निषेध-वाक्यालंकारजिज्ञासानुनये खलु' इत्यमरः) प्रतिज्ञातं परिपाल्य खल-निन्दातीतं यशो लभस्वेति भावः / / 84 / / ___ व्याकरण-प्रियः प्रीपातीति /प्री+कः / विज्ञः विशेषेण जानातीति वि+Vशा+कः / यामा-याच्+न+टाप / विधेयम् विधातु योग्यमिति वि+/धा+ यत् / खेला/खेल+ अ+टाप् / पाश्रवः आशृणोतीति आ+VS+अच् कर्तरि / अनुवाद-हे प्रिय विद्वान् , ( मेरा ) प्रार्थना मत ठुकरामो, जो काम करना है, उसमें तरहतरह की टेढ़ी-मेढ़ी चाल मत चलो; वचन पर स्थिर बने रहने की प्रशस्य स्थिति से उत्पन्न होने वाले उस यशःपथ से मत विचलित होओ, जो नीच लोगों के मिथ्या प्रवादों की खिलवाड़ से परे रहता है / / 84 / / टिप्पणी- अलं विलय, खलु स्खलित्वा ऐसा लगता है मानो कवि ने वैयाकर पी झक में आकर पाणिनि के 'अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्वा' 3.4 / 18 इस सूत्र के उदाहरण-समन्वय हेतु उक्त श्लोक र चा हो। यहाँ मल्लिनाथ ने शंका उठाई है कि 'न पदादौ खल्वादयः' इस नियम के अनुसार ख्लु शब्द पाद के आरम्भ में नहीं आना चाहिए था और समाधान भी कर गये 'नार्थस्य खलु-शब्दस्यानुद्वेजकत्व द नबदेव पादादौ न दूष्यते' अर्थात् निषेधार्थ से भिन्न अर्थों वाले खलु शब्द का ही पाद के आदि में निषेव है, किन्तु निषेधार्थक खलु शब्द न की तरह किसी तरह उद्वेजक न होने से दोषाधायक नहीं होता है। यहाँ 'विधं' 'विधे' में छक और ख एवं ल इन दो अक्षरों के व्यायाम में कवि वृत्त्यनुप्रास की अच्छी छटा दिखा गया है। स्वजीवमप्यातमुदे ददद्भ्यस्तव नपा नेदृशबद्धमुष्टेः / मह्यं मदीयान्यदसनदित्सोर्धमः कराद भ्रश्यति कीर्तिधौतः // 85 //